सत्य निष्ठ बनकर सत्य के आवरण का व्रत लेने से लौकिक तथा पारलौकिक दोनों ही जीवन सुख एवं शान्तिमय बनते हैं। सत्यव्रतियों की उपेक्षा उनका अपमान और त्याग कर देने से अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ता है।
इसलिए जीवन में आन्तरिक शुचिता, अन्त:करण की निर्मलता सबसे महत्वपूर्ण है। अन्य सारे गुण उसके कारण स्वत: ही पैदा हो जाते हैं। अन्त:करण निर्मल रहेगा तो ध्यान परमात्मा में रहेगा।
ध्यान परमात्मा में रहेगा तो पापवृत्ति में झुकाव हो ही नहीं पायेगा। निर्मल मन से की गई आराधना नर से नारायण बना देती है। सत्य, ईमानदारी, निश्चिंतता, निष्कपटता ये सारे गुण कल्याण के प्रतीक है। जिसने भी सत्य को अपने जीवन का अंग बनाया उसे सुख की प्राप्ति हुई।
इसके विपरीत जिसने सत्य को तिलांजलि दे दी और दुख के सागर में गोते लगाने को बाध्य होना पड़ेगा। इसलिए मनुष्य के लिए श्रेयष्कर यही है कि अन्त:करण को निर्मल रखते हुए सत्य पथ के अनुगामी बने ताकि यह जीवन और इसके पश्चात का जीवन दोनों ही सुखी रहे।