सुप्रसिद्ध कहावत है-जैसा मन होगा, वैसा तन होगा।संत रविदास ने कहा है-मन चंगा तो कठौती में गंगा। यदि आपका मन शुद्ध है तो घर के कठौते में गंगा का स्वरूप सरलता से देखा जा सकता है, और यदि आपका मन एकांत नहीं अथवा शुद्ध नहीं है तो गंगा के स्नान करने से भी आपका मन चंगा नहीं हो सकता है।संत रविदास ने अपने कर्म और वचन से यह सिद्ध कर दिखाया था।
उन्होंने गंगा माता के द्वारा इनके लिए ब्राह्मण को दिए गए रत्न- हीरा जडि़त कंगन को ब्राह्मण के द्वारा वहाँ के रानी को दे दिए जाने पर रानी के द्वारा उस कंगन की दूसरी प्रति अर्थात जोड़ी ब्राह्मण से मांगे जाने की स्थिति में अपनी दुकान में जल रखी गई लकड़ी की कठौती से उस रत्न जडि़त कंगन की दूसरी जोड़ी निकाल राजा को देकर अपनी उपरोक्त उक्ति को सिद्ध कर दिया था। जब हम किसी कार्य, व्यक्ति अथवा वस्तु पर कोई शंका न कर उस पर शत- प्रतिशत प्रतिशत विश्वास कर लेते हैं, और उसके बारे में मनन व तदनुरूप कार्य करने लगते हैं, तो वह कार्य,व्यक्ति, वस्तु का शुभाशुभ प्रभाव हमारे जीवन में घटित होने लगता है। मानव मन निर्विवाद रूप से एक ऐसी प्रमुख शक्ति है, जिसकी सहायता से व्यक्ति परमानन्द की प्राप्ति के साथ ही असाध्य से असाध्य रोगों से मुक्ति पा सकता है।
सभी रोगों का मूल कारण अर्थात बीज मन में ही रहता है। शरीर तो केवल मन का प्रतिविम्ब है। शरीर पर प्रकट होने वाले लक्षण का कारण मन में ही स्थित होता है। स्वास्थ्य, सुख एवं रोगों के विनाश के लिए शरीर के साथ मन की एकरूपता आवश्यक है।व्यक्ति के विश्वास, भावना एवं विचार से उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। मन ही रोग और आरोग्य का जनक है।अधिकांशत: रोग का मूल कारण रोगी की मनोदशा ही होती है। तन के बीमार होने पर उसका इलाज संभव है, परंतु मन के बीमार होने पर उसका खामियाजा पूरे व्यक्तित्व को चुकाना पड़ता है।
तन एवं मन दोनों का इतना गहरा संबंध है कि एक के अभाव में दूसरे का पूर्ण स्वस्थ रहना कठिन ही नहीं असंभव है। यह सच है कि दृश्य संसार में प्रकट होने से पूर्व हर चीज अदृश्य अथवा मानसिक संसार में प्रकट होती है। रोग पहले मन में उत्पन्न होता है, फिर तन में। इसलिए प्राचीन काल से ही मन को स्वस्थ रखने के लिए स्नान- ध्यान, आसन, समाधि, पूजा, पाठ, प्रार्थना, दान, पुण्य कर्मों को करने का विधान है। जीवन शक्ति के विकास के लिए शरीर को भोजन और मन को भयमुक्त सकारात्मक चिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। तन और मन दोनों का उपचार एक साथ होने पर व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन प्राप्त करता है।
मनुष्य के लिए जीवन तथा स्वास्थ्य को समस्त प्रकार से संतुलित एवं पूर्ण बनाने के लिए शारीरिक एवं मानसिक एकरूपता अनिवार्य है।शरीर के साथ मानसिक स्वास्थ्य भी आवश्यक है। व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होने पर उसके सभी कार्य सुचारूपूर्वक ठीक रूप से सम्पन्न होते हैं लेकिन मानसिक अस्वस्थता की स्थिति में व्यक्ति दिनभर चिड़चिड़ा महसूस कर सकता है।
मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य का संबंध उसकी भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक स्थिति से जुड़ा होता है। मानसिक स्वास्थ्य से व्यक्ति के सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता प्रभावित होती है। इसका असर व्यक्ति के तनाव को संभालने और जीवन से जुड़े जरूरी विकल्प के चयन पर भी पड़ सकता है। मानसिक स्वास्थ्य जीवन के प्रत्येक चरण अर्थात बाल्यावस्था, किशोरावस्था, वयस्कता और बुढ़ापे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।मानसिक स्वास्थ्य का व्यक्ति की दिनचर्या पर काफी असर पड़ता है।
ऐसे में मानसिक समस्याओं से बचाव करना जरूरी है। लेकिन इससे बचाव के लाख कोशिशों के बावजूद आज सम्पूर्ण विश्व मानसिक समस्याओं से जूझ रहा है। इसलिए मानसिक स्वास्थ्य शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। यह पहली बार 10 अक्टूबर 1992 को विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघ नामक एक वैश्विक मानसिक स्वास्थ्य संगठन की पहल पर मनाया गया था, जिसके सदस्य और संपर्क 150 से अधिक देशों में हैं।
इस दिन मानसिक बीमारी और लोगों के जीवन पर पडऩे वाले इसके प्रमुख प्रभावों पर ध्यान देने के लिए वार्षिक जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा समर्थित किया जाता है, जो दुनिया भर में स्वास्थ्य मंत्रालयों और नागरिक समाज संगठनों के साथ अपने मजबूत संबंधों का उपयोग करके मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन तकनीकी और संचार सामग्री विकसित करने में भी सहायता करता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मानसिक स्वास्थ्य एक ऐसी स्थिति है, जिसमें व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अहसास होता है। इस स्थिति में व्यक्ति दूसरों के साथ सकारात्मक तरीके से बातचीत कर सकता है। साथ ही तनाव की समस्या से निपटने की क्षमता भी रखता है। मानसिक स्वस्थता के बिना जीवन के सभी कार्य प्रभावित होते हैं। मानसिक स्वास्थ्य तनाव से जूझने, शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने, लोगों से अच्छे संबंध बनाए रखने, सामाजिक कार्य में योगदान देने, प्रोडक्टीव काम करने के लिए, अपनी क्षमता को जानने में, स्ट्रोक, टाइप 2 मधुमेह और हृदय रोग के जोखिम से बचने आदि कार्यों में सहायक भूमिका निभाता है।
मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकार में चिंता, अवसाद से ग्रस्त, उदासी, दु:ख, तनाव, क्रोध, निराशा, असामान्य रूप से भावनाओं को प्रकट करने, भोजन और शरीर की छवि से संबंधित जुनूनी व्यवहार बहुत कम खाने अथवा जरूरत से अधिक खाने की प्रवृति, उम्मीद के विपरीत असामान्य रूप से किसी घटना के बाद तनाव और डर महसूस करने, अवास्तविक और अनुपस्थित चीजों को देखने, सुनने और विश्वास करने, अपने व्यवहार को नियंत्रित रखने में परेशानी, शराब या ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थों की लत, पर्सनालिटी अर्थात व्यवहार में पूरी तरह बदलाव होने से सोचने-समझने, खाने-पीने और सोने के समय में भी बदलाव, स्वयं अथवा दूसरों को नुकसान पहुंचाने की सोच, दैनिक कार्य को ठीक से न कर पाने आदि लक्षण शामिल हैं। इनका असर व्यक्ति के रिश्तों पर भी पड़ सकता है। इससे व्यक्ति को तनाव होना भी काफी आम हो जाता है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के लक्षण पूर्व से ही व्यक्ति में दिखाई देने लगते हैं।
मानसिक स्वास्थ्य विकार विश्व भर में होने वाली सामान्य बीमारियों में से एक है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार मानसिक विकारों से पीडि़त व्यक्तियों की अनुमानित संख्या 450 मिलियन है। भारत में बच्चों एवं किशोर सहित लगभग 1.5 मिलियन गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से प्रभावित हैं। मानसिक बीमारी व्यक्ति के महसूस, सोचने एवं काम करने के तरीके को प्रभावित करती है। यह रोग व्यक्ति के मनोयोग, स्वभाव, ध्यान और संयोजन एवं बातचीत करने की क्षमता में समस्या पैदा करता है। अंतत: व्यक्ति असामान्य व्यवहार का शिकार हो जाता है। उसे दैनिक जीवन के कार्यकलापों के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है, जिसके कारण यह गंभीर समस्या स्वास्थ्य चिंता का विषय बन गई है।
इसलिए भारत सरकार ने देश में मानसिक बीमारी के बढ़ते बोझ पर विचार करने के उद्देश्य से वर्ष 1982 में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (एनएमएचपी) की शुरूआत की थी। फिर भी इसमें सुधार के लक्षण दिखाई नहीं देते। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसारलगभग 7.5 प्रतिशत भारतीय किसी-न-किसी रूप में मानसिक विकार से ग्रस्त हैं। और आगामी दशक तक भारत की लगभग 20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से पीडि़त होगी। मानसिक रोगियों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद भी अब तक भारत में इसे एक रोग के रूप में पहचान नहीं मिल पाई है, आज भी यहाँ मानसिक स्वास्थ्य की पूर्णत: उपेक्षा की जाती है और इसे काल्पनिक माना जाता है।
जबकि सच्चाई यह है कि जिस प्रकार शारीरिक रोग हमारे लिये हानिकारक हो सकते हैं,उसी प्रकार मानसिक रोग भी हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।भारत में मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों की कमी भी एक महत्वपूर्ण विषय है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसारवर्ष 2011 में भारत में मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीडि़त प्रत्येक 100,000 रोगियों के लिए0.301 मनोचिकित्सक और 0.07 मनोवैज्ञानिक थे।2011 की जनगणना के आँकड़े के अनुसार भारत में लगभग 1.5 मिलियन लोगों में बौद्धिक अक्षमता और तकरीबन 722,826 लोगों में मनोसामाजिक विकलांगता मौजूद है। इसके बावजूद भी भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर किये जाने वाला व्यय कुल सरकारी स्वास्थ्य व्यय का मात्र 1.3 प्रतिशत है।
2011 की जनगणना आँकड़ों से यह भी पता चलता है कि मानसिक रोगों से ग्रसित लगभग 78.62 प्रतिशत लोग बेरोजग़ार हैं। मानसिक विकारों के संबंध में जागरूकता की कमी भी भारत के समक्ष एक बड़ी चुनौती के रूप में मौजूद है। देश में जागरूकता की कमी और अज्ञानता के कारण लोगों द्वारा किसी भी प्रकार के मानसिक स्वास्थ्य विकार से पीडि़त व्यक्ति को पागल ही माना जाता है एवं उसके साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता है। यह स्थिति ठीक नहीं है। इसमें बदलाव की सख्त जरूरत है।
-अशोक ‘प्रवृद्ध’