यह नितान्त दुखद और विस्मित करने वाली खबर है कि हमारे लोकजीवन में जाति कहीं भी पीछा नहीं छोड़ती। यहां तक कि जेल में अभिरक्षा में होने के बाद भी जाति पांति कायम रहती है। देश की आजादी के 77 साल बाद भी जेलों के अंदर कैदियों के साथ जातिगत भेदभाव होना दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ ही शर्मनाक भी हैं। हाल ही में चीफ जस्टिस ने इस बात पर गंभीर प्रश्न खड़े करते हुए एक आदेश दिया है। हमारे यहां जेलों में जाति के आधार पर कैदियों को काम पर लगाया जाता रहा है। इस का सीधा तात्पर्य यह है कि यदि निम्न कही जाने वाली जाति से है तो उन कैदियों को सफाई कर्मी जैसे काम पर लगाया जाता है और यदि उच्च जाति से है तो खान पान यानि की मैस का काम दिया जाता है। यह भेदभाव बताता है कि जाति का जहर हमारे तंत्र की जड़ों को आज भी दूषित किए है। औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों के समय से चली आ रही इस कुप्रथा को पहले ही बंद होना चाहिए था, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण घटिया जातिवादी सोच आज भी बरकरार है। सजा के बाद कैदियों को जेल में रखने का उद्देश्य उनको सुधारना और समाज की मुख्यधारा में वापस लाने में मदद करना होता है, ताकि जेल से छूटने के बाद वे समाज के साथ फिर से जुड़ सकें। लेकिन अगर जेलों में ही कैदियों से जातिगत स्तर पर भेदभाव होता है, तो समझना मुश्किल नहीं है कि उनकी मानसिक स्थिति पर क्या असर पड़ता होगा। मगर अच्छी बात है कि देश की सबसे बड़ी अदालत ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में जेलों में जातिगत भेदभाव के साथ श्रम विभाजन पर रोक लगाने की दिशा में अहम फैसला दिया है। शीर्ष न्यायालय ने भारत की जेलों में बंद कैदियों के बीच जाति के आधार पर भेदभाव करने को गैर कानूनी तथा असंवैधानिक करार देते हुए स्पष्ट तौर पर कहा है कि देश की किसी भी जेल में जाति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। जेल नियमावली में मौजूद ऐसे सभी प्रावधानों को हटाया जाना चाहिए, जो इस तरह के भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। कोर्ट ने इसे संविधान के आर्टिकल 15 का सरासर उल्लंघन बतलाया है और साफतौर पर कहा है कि रसोई व सफाई का काम जाति के आधार पर बांटा जाना अनुचित है। दरअसल एक महिला पत्रकार द्वारा दायर जनहित याचिका पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए शीर्ष अदालत की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि जेल नियमावली जाति के आधार पर कामों के बंटवारे में भेदभाव करती है। खाना बनाने का काम ऊंची जाति के लोगों को देना व सफाई का काम निचली जातियों के कैदियों को देना संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है, जो जेलों में जातिगत भेदभाव को बढ़ाता है। कोर्ट का कहना था कि जाति के आधार पर कामों का बंटवारा औपनिवेशक सोच का पर्याय है, जिसे स्वतंत्र भारत में जारी नहीं रखा जा सकता है। कोर्ट ने कहा कि यह बात स्पष्ट है कि जेल नियमावली साफतौर पर भेदभाव करती है। साथ ही कहा कि नियमावली में जाति से जुड़ी डिटेल्स का उल्लेख असंवैधानिक है। कोर्ट ने खरी-खरी सुनाते हुए सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के जेल मैन्युअल में तुरंत बदलाव करने को कहा है। साथ ही राज्यों को इस फैसले के अनुपालन की रिपोर्ट कोर्ट में पेश करने को कहा है। उल्लेखनीय है कि चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस बेंच में जस्टिस जेबी पारदीवाला व जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे। दरअसल एक पत्रकार सुकन्या शांता ने सबसे पहले यह मामला उठाया था। उनका कहना था कि देश के 17 राज्यों की जेलों में कैदियों के साथ यह भेदभाव हो रहा है। उन्होंने दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट में यह जनहित याचिका दायर की थी। इस याचिका पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने तीन महीनों में नियमों में बदलाव करने को कहा है। देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा है कि सम्मान के साथ जीने का अधिकार कैदियों को भी है। कैदियों को सम्मान प्रदान न करना औपनिवेशिक काल की निशानी है, जब उन्हें मानवीय गुणों से वंचित किया जाता था। संविधान-पूर्व युग के सत्तावादी शासन ने जेलों को न केवल कारावास के स्थान के रूप में देखा, बल्कि वर्चस्व के उपकरण के रूप में भी देखा। इस अदालत ने संविधान द्वारा लाए गए बदले हुए कानूनी ढांचे पर ध्यान केंद्रित करते हुए माना है कि कैदियों को भी सम्मान का अधिकार है। फैसले में कहा गया है कि मानव गरिमा एक संवैधानिक मूल्य और संवैधानिक लक्ष्य है। अदालत ने अन्य फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि मानव गरिमा मानव अस्तित्व का अभिन्न अंग है और दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है और इसमें ‘यातना या क्रूर, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार के खिलाफ सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि गरिमा और जीवन की गुणवत्ता के बीच भी घनिष्ठ संबंध है। मानव अस्तित्व की गरिमा तभी पूरी तरह से साकार होती है, जब कोई व्यक्ति गुणवत्तापूर्ण जीवन जीता है। शीर्ष न्यायालय ने आदेश दिया कि संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (भेदभाव का निषेध), 17 (अस्पृश्यता का उन्मूलन), 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) और 23 (जबरन श्रम के खिलाफ अधिकार) का उल्लंघन करने के कारण इन प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया जाता है। सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को निर्देश दिया जाता है कि वे तीन महीने की अवधि के भीतर इस फैसले के अनुसार अपने जेल नियमावली/नियमों को संशोधित करें। दरअसल आरोप है कि देश भर के जेलों के बैरकों में जाति आधारित भेदभाव जारी है और शारीरिक श्रम कार्यों तक फैला हुआ है, जो विमुक्त जनजातियों और आदतन अपराधियों के रूप में वर्गीकृत लोगों को प्रभावित कर रहा है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में इन्हें गंभीर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसे कई उदाहरण सामने है, जहां अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को अलग और अन्य जातियों के व्यक्तियों को अलग रखा गया है। इस तरह का जाति आधारित भेदभाव जेल में कदम रखने के बाद से ही शुरू होता है। राजस्थान समेत देश की कई जेलों में आज भी ब्रिटिश शासन के जेल मैनुअल के मुताबिक काम का आवंटन होता है। प्रत्येक आरोपी व्यक्ति, जो जेल में दाखिल होता है, उससे जाति पूछी जाती है। एक रिपोर्ट के अनुसार मानवाधिकार से जुड़ी एक निजी संस्था ने दावा किया है कि निचले तबके के बंदियों को शौचालय व जेलों की सफाई जैसे काम सौंपे जाते हैं। जानकारी के मुताबिक जाति पिरामिड के निचले भाग वाले सफाई का काम करते हैं, उनसे उच्च वर्ग वाले रसोई या लीगल दस्तावेज विभाग को संभालते हैं, जबकि अमीर और प्रभावशाली कोई काम नहीं करते। दअरसल औपनिवेशिक युग के जेल मैनुअल ने इस तरह के जाति-आधारित श्रम विभाजन की अनुमति दी थी, लेकिन बाद में सरकारों ने बुनियादी मानवाधिकारों के अनुरूप मैनुअल में संशोधन करने के लिए बहुत कम काम किया है, लेकिन इसके बावजूद कुछ कुप्रथाएं आज भी विद्यमान है, जिसमें से एक जातिवाद के आधार पर काम देना भी शामिल है। अब कानूनी और मानवीय आधार पर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए फैसले के बाद उम्मीद की जा सकती है कि कैदियों के साथ भेदभाव की कुप्रथा खत्म होगी और जेलों में उनके अधिकारों की रक्षा होगी। जरूरत इस बात की है कि आरक्षण के स्थान पर जातिविहीन समाज की स्थापना पर बल दिया जाए। जाति के आधार पर वर्गीकरण करना ही व्यवस्था से समाप्त कर दिया जाए।
(मनोज कुमार अग्रवाल -विभूति फीचर्स)