नयी दिल्ली- उच्चतम न्यायालय ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को देश के विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों में प्राप्त जातिगत भेदभाव की शिकायतों के कुल आंकड़े जुटाने और उन पर की गई कार्रवाई के बारे में छह सप्ताह के भीतर जानकारी उपलब्ध कराने का शुक्रवार को निर्देश दिया।
न्यायमूर्ति सूर्य कांत और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कथित जातिगत भेदभाव के कारण आत्महत्या के शिकार
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रोहित वेमुला और पायल तड़वी की माताओं की ओर से दायर 2019 की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश पारित किया।
पीठ ने यूजीसी से यह भी बताने का निर्देश दिया कि कितने केंद्रीय, राज्य, डीम्ड और निजी विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों ने ‘यूजीसी (उच्च शिक्षण संस्थानों में समानता को बढ़ावा) विनियम 2012’ के तहत ‘समान अवसर सेल’
का गठन किया है। साथ ही, इस विनियम के तहत प्राप्त शिकायतों पर कार्रवाई के बारे में जानकारी मांगी है।
अपीलकर्ताओं ने विश्वविद्यालयों में ‘बड़े पैमाने पर’ जातिगत भेदभाव के खिलाफ कार्रवाई की मांग करते हुए शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया।
हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के पीएचडी स्कॉलर रोहित वेमुला और तमिलनाडु टोपीवाला नेशनल मेडिकल कॉलेज की
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आदिवासी छात्रा पायल तड़वी ने कथित तौर पर शिक्षण संस्थान परिसर में जातिगत पूर्वाग्रह के कारण क्रमशः जनवरी 2016 और मई 2019 में आत्महत्या कर ली थी।
शीर्ष अदालत ने कहा कि वह मामले को समय-समय पर सूचीबद्ध करेगी, क्योंकि 2019 के बाद इसे 2023 में केवल एक बार सूचीबद्ध किया गया था।
याचिकाकर्ता महिलाओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा कि मामले की नियमित रूप से निगरानी की
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जानी चाहिए और शिकायतों से संबंधित आंकड़े शीर्ष अदालत को उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसके बाद पीठ ने यूजीसी के अधिवक्ता से कहा कि अदालत आंकड़े देखना चाहती है।
यूजीसी की ओर से पीठ को सूचित किया गया कि 2004 से 2024 के बीच आत्महत्या से 115 मौतें हुईं, जिनमें से जान गवांने वाले कई दलित समुदायों से संबंधित विद्यार्थी थे।
पीठ के समक्ष वरिष्ठ अधिवक्ता जयसिंह ने अनुरोध करते हुए कहा,“उन्हें (यूजीसी) की गई कार्रवाई रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा जाए।”
इस पर यूजीसी के अधिवक्ता ने कहा कि उन्होंने सभी पहलुओं पर विचार करने के बाद परिसर में जातिगत भेदभाव के खिलाफ एक पूरी तरह से नया विनियमन तैयार किया है और यह आपत्ति या राय मांगने के लिए सार्वजनिक होगा और उसके बाद इसे अधिसूचित किया जाएगा।
पीठ ने कहा,“लेकिन यह मामला 2019 से लंबित है।”
यूजीसी के अधिवक्ता ने कहा कि उन्होंने परिसर में जातिगत भेदभाव के खिलाफ 2023 में कवायद शुरू की थी और पूरी कवायद हो चुकी है। इसे अंतिम रूप दे दिया गया है।
पीठ ने कहा,“आज हम 2025 में हैं। इस तरह की चीजों में इतना समय नहीं लगना चाहिए।”
इंदिरा जयसिंह ने कहा कि उन्होंने (यूजीसी) पहले एक अनुचित हलफनामा दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि 2023 में बैठक होगी।
पीठ ने कहा कि यह विनियमन के पहलू पर है। यदि उन्होंने प्रभावी तरीके तैयार किए हैं तो यह समिति की विशेषज्ञ सलाह पर हो सकता है।
पीठ ने पूछा, “हमें इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हम इसकी जांच करना पसंद करते हैं; क्या यह समस्या का प्रभावी ढंग से समाधान करता है? क्या यह कोई श्वेत पत्र है, जिसे वे पेश करना चाहते हैं।”
जयसिंह ने कहा कि यूजीसी के अधिवक्ता को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या 2012 और 2013 के नियमों को हटा दिया गया है।
पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने अपने बच्चों को खो दिया है और वह समय-समय पर मामले को सूचीबद्ध करने पर सहमत होते हुए मुद्दे की संवेदनशीलता के प्रति सचेत है।
पीठ ने कहा कि अब समय आ गया है कि यूजीसी इस संवेदनशील मुद्दे पर ‘कुछ सहानुभूति’ दिखाए और यूजीसी को नए नियमों (यदि कोई हो) को अधिसूचित करने और इसे अदालत के विचार के लिए रिकॉर्ड पर रखने का निर्देश दे।
शीर्ष अदालत ने इस मामले में केंद्र और राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (एनएएसी) को पक्षकार बनाया और उन्हें याचिकाओं पर जवाबी हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया।
पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से भी इस मामले में मदद करने की अपील की
याचिकाकर्ताओं का पक्ष रखते हुए वकील ने कहा कि यूजीसी को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या विश्वविद्यालय और अन्य उच्च शिक्षण संस्थान वास्तव में 2012 के नियमों को लागू कर रहे हैं।
इस पर जयसिंह ने कहा कि 820 विश्वविद्यालयों में से 419 ने इस प्रश्न पर ‘लागू नहीं’ उत्तर दिया था कि क्या उन्होंने अपने परिसरों में समान अवसर सेल गठित किए हैं?