भक्त जिस भावना से भगवान को याद करता है उसे उसके अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है। छोटी से छोटी क्रिया भी भाव की प्रधानता से मुक्ति तक दे सकती है और उत्तम से उत्तम क्रिया भी निम्न श्रेणी का भाव होने पर नरक तक ले जाती है।
इस प्रकार एक ही क्रिया भाव के कारण उत्तम, मध्यम और अधम फल देने वाली हो सकती हैं। सामान्य श्रेणी की क्रिया अगर कर्तव्य समझकर निष्काम प्रेमभाव से की जाएं तो अंतकरण की शुद्धि होकर इनसे परमात्मा की प्राप्ति तक हो सकती है। इसका अर्थ है भाव ही प्रधान है, क्रिया नहीं। इसलिए हम जो भी कार्य करें, उत्तम भाव से करें।
भगवान का एक भक्त साधक था जो पीपल के पेड़ के नीचे रहकर भजन, ध्यान, गीता पाठ, साधु सेवा, तप और उपवास करता था। एक बार नारद जी उधर से निकले, तब उस भक्त ने नारद जी से पूछा, आप कहां जा रहे हैं।
नारद जी ने उत्तर दिया, मैं बैकुण्ठ धाम जा रहा हूं। भक्त ने नारद जी के चरणों में सिर झुकाकर कहा कि क्या आप मेरे लिए भगवान से यह पूछ लेंगे कि मुझे उनके दर्शन कब होंगे। नारद जी ने उत्तर दिया-क्यों नहीं। नारद जी भगवान के गुणों का कीर्तन करते हुए भगवद्धाम जा पहुंचे।
जब नारद जी भगवान से बातें कर रहे थे तो नारद जी ने उस भक्त का संदेशा उन्हें सुनाया और पूछा-भगवन उस भक्त की सेवा पूजा, भजन-ध्यान, तपस्या प्रशंसा योग्य है। वो आपके दर्शनों का अभिलाषी है। उसे आपके दर्शन कब होंगे? भगवान बोले-इसका उत्तर अभी मैं नहीं दे सकता। नारद जी उत्सुक होकर बोले-क्यों भगवन?
भगवान ने उत्तर दिया-उसका भजन, ध्यान, सेवा-पूजा और तपस्या उस भाव की नहीं है इसलिए पीपल के पेड़ पर जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों बाद मेरे दर्शन होंगे। भगवन की यह बात सुनकर नारद जी हैरान रह गये। भगवन ने कहा-इस रहस्य को तुम नहीं समझोगे। बस तुम उसे मेरा कहा बता देना।
कुछ समय बाद नारद जी लौटकर उस पीपल के पेड़ के नीचे बैठे भक्त के पास पहुंचे। भक्त नारद जी को देखकर उनके चरणों में नतमस्तक हो गए और जानने के इच्छुक हुए कि भगवान जी ने अपने दर्शन देने का क्या समय बताया है। नारद जी ने जो भगवान जी से बात हुई थी, सारा विवरण बता दिया। नारद जी ने कहा-आप अपनी साधना जारी रखें। आपको प्रभु के दर्शन पीपल के वृक्ष में जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों बाद होंगे।
भक्त एकदम करूणाभाव से गदगद होकर बोला-क्या सच मुझे भगवान के दर्शन होंगे? क्या यह बात भगवान जी ने अपने श्री मुख से कही? जब कभी हों, भगवान के दर्शन तो अवश्य ही होगें।
भक्त के आनन्द का ठिकाना नहीं रहा। उसके भक्ति के भाव एकदम बदल गये। वह आनंद विभोर होकर प्रेम भाव से भगवान के गुणों का कीर्तन करने लगा, मस्त होकर नाचने लगा। इतना मग्न हो गया कि उसे अपने तन की सुधि भी नहीं रही। भगवान प्रसन्न होकर उसी समय उसके समक्ष प्रकट हो गये। नारद जी भी वहीं थे। वे देखकर अवाक् रह गये। उन्होंने पूछा-भगवन! आप ने तो इस साधक को कई वर्षों बाद दर्शन देने थे पर आप तो दोपहर बीतने पर ही प्रकट हो गये।
तभी प्रभु मुस्करा कर बोले-मैंने तुझसे कहा था न कि तुम इस रहस्य को नहीं समझ पाओगे। नारद जी ने कहा, मुझे प्रभु इस रहस्य के बारे में समझाइये। भगवन बोले-नारद उस समय इस साधक की क्रिया प्रधान थी। अब क्रिया के साथ-साथ भाव भी हैं। वैसे व्रत, उपवास, सेवा-पूजा, तपस्या, गीतापाठ, सपुरूषों का संग उत्तम क्रियाएं हैं। इन सब क्रियाओं के साथ साथ भक्त का अनन्य प्रेमभाव भी हो तो उसमें विलम्ब उचित नहीं।
यह जान नारदजी प्रेम विभोर हो गये और भावावेश में अपनी सुध-बुध भूलकर भगवान के नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे। दोनों भक्तों की प्रेममयी स्थिति को देखकर भगवान भी प्रेम मग्न हो गये और कहा-जो मुझे जिस रूप में भजता है मैं भी उनको उसी रूप में भजता हूं।
– नीतू गुप्ता