कुछ माह पूर्व तक विधायकजी के घर काम कर पेट पालने वाली विधवा रतिया उनकी दैहिक भूख की कई बार शिकार हुई थी। आखिर बेचारी करती क्या? कारण कि स्वर्गवासी पति के इलाज के लिए विधायकजी के पास गिरवी रखी खेती-बाड़ी, जेवर का कर्ज उतारना जो था। चीखती-चिल्लाती भी तो किसके सामने। गरीब की आवाज तो कीड़े-मकोड़ों के स्वर की तरह जहां उत्पन्न होती है, वहीं विलीन हो जाती है। बेचारी विधायकजी का खिलौना बन उनके इशारों पर लुटती-टूटती रही।
आज उनका पी.ए., रतिया के घर हाथ में रखे लिफाफे में कुछ लेकर आया था।
ले रतिया विधायकजी ने मुआवजा राशि भेजी है…।
काहे का मुआवजा?
अरी वही… अब तू बेरोजगार हो गयी… विधायकजी के घर काम पर नहीं जाती… तेरे हालात पर उन्हें तरस आया तो…। रखले पांच सौ रुपया है…।
पांच सौ रुपए में मेरी बेरोजगारी दूर हो जाएगी का…? मैं मजदूर हूं… मुझे काम की कोई कमी नहीं है… रख ले अपने रुपए…।
अरी इतनी क्यों बौखला रही है… यह चेक भी तेरे नाम… एक हजार का….।
ये काहे का है…।
अरी वही जो तूने…? इसे तो तू ही जान। समझदार है तू।
अच्छा… मुझे लूटने का… मेरे पेट में चार माह का बच्चा देने का…। मैं न करवाऊंगी गर्भपात। और सुन अपने विधायक से कह देना… इस बच्चे को जन्म देकर रहूंगी, ताकि पाप के हाथों ही पापी का अंत हो। मैं एक औरत हूं कोई कुतिया नहीं… औरत जब रणचण्डी बन जाती है, तब दानव का अंत कर चैन लेती है… थूकती हूं उसके ऐसे मुआवजे पर।
अरी रख ले… काहे को बैर लेती है…। उनके पास… ताकत है… तेरे पास….? सोच ले।
विधायक के जूठन खोर… तू भी उसकी बोली में बात कर रहा है। चल काला मुंह कर अपना- यहां से। वरना…।
रतिया का रौद्र रूप देख मुंह बिचकाते हुए बुदबुदाया- इस सती सावित्री को सबक….?
और वह लौट आया।
बात विधायकजी के कानों में बिजली की गति से पहुंची कि वह बच्चे को जन्म देने पर अड़ी है… लोक लाज को कपड़े की भांति उतार फैंका है उसने। इसका मतलब विपक्षियों को उनकी कुर्सी हिलाने का मौका… समाज में थू-थू… मीडिया को मसाला…। विधायकजी के कान खड़े हो गए। उनकी प्रतिष्ठा पर लगते ग्रहण से मुक्त होने का उपाय तो सोचना ही था। तुरंत अपने चमचे को बुलाया- सुन बे कालू… आज रात रतिया को उठा ले… और सुन डॉ. शीला को हिदायत देते हुए सब कुछ समझा देना…। पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाकर चमचा चला गया।
आलीशान बंगले के एक कक्ष में कैद सुबकती रतिया का गर्भपात तो हो गया। एक सुबह अपने लग्गू-भग्गुओं के संग विधायकजी उसके पास पहुंचे।
सुन रतिया… अब तू जली हुई रस्सी रह गयी है काहे को इतना ऐंठी है… चुप, मत सुबक… अगर तू यूं रोएगी तो तेरा शरीर ही नाश होएगा… मेरा क्या जाएगा… ले पांच हजार रुपया… बस अपना मुंह बंद रखना।
रे राक्षस अभी भी तू मेरे जले पर नमक छिड़कने से बाज नहीं आ रहा है।
अरे नहीं… नहीं…. मैं तो मुआवजा दे रहा हूं… आखिर तूने मेरे पाप का अंत करने में… कितना रक्त बह गया तेरा… शरीर टूट गया न…. मान जा….
अगर यह कम पड़ते हों तो…।
‘तू ऐसे बाज नहीं आएगा… तो तुम भी सुन लो रहस्य।’
‘क्या रहस्य है जरा हम लोगों को भी सुना डाल।’
‘यह मुआवजा अपनी बिटिया रिंकी को दे जो खुद कुंवारी मां बनने वाली है।
क्या कहा कुतिया?
विधायकजी इतनी जल्दी…? बात तो सुन लो।
तुमने मेरे पेट का पाप तो साफ करा दिया… पर अपनी बिटिया के पेट में आपके विरोधी नेता बनवारीलाल के बेटे का छह माह का गर्भ नष्टï करा दो तो जानूं… जो ताकत मुझपे आजमाई अपनी बिटिया पर आजमा कर दिखाओ। उसके पेट का पाप चार आदमी के सामने उजागर नहीं कर सकते न…।
और सुनो, यह सब मेरा किया धरा है… मैंने ही उन दोनों की मुलाकात में हाथ बंटाया था उस दिन जिस दिन तुमने मुझे पहली बार लूटा था…. मैं गली की कोई आवारा कुतिया नहीं थी, जो सब कुछ सह जाती… औरत हूं न… औरत बदला ऐसे ही लेती है…। और वह जोरों से खिलखिला पड़ी।
उसकी बातें सुनते-सुनते विधायकजी के गुस्से का पारा यूं तो चढ़ता ही जा रहा था पर उसके हंसने से उनके शरीर का रक्त संचार इतना बढ़ गया कि कांपते शरीर को उनके चमचे भी नहीं संभाल पाए और विधायक जी ने खरगोश पर बाज की भांति झपट्टा मारकर रतिया का गला दबा दिया। एक हल्की चीख के साथ रतिया वहीं लुढ़क पड़ी। सब हक्के-बक्के लाश को ठिकाने लगाने में जुट गए। पसीने में तरबतर विधायकजी बिटिया के बारे में सोचकर न जी पा रहे थे, न मर पा रहे थे।
सुनील कुमार ‘सजल’ – विनायक फीचर्स