Sunday, September 8, 2024

कहानी: समर्पित धरा

श्रीमंत का फोन सुबह ही आ गया था- ‘मां मुझे ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल पा रही है, सो शनिवार को आना मुश्किल है। विनीता के पास समझौते के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था, सो विचारने लगी- ‘जरूर बहू ने मना कर दिया होगा, फाइव डे वीक है। यदि वीक एण्ड पर घर आ जाता, तो क्या बुरा हो जाता।
विनीता को उदास देखकर जनकराज से चुप न रहा गया – ‘तुम परेशान क्यों हो रही हो, सब विधि का विधान है, इसे स्वीकार करना ही है…।
‘मेरी परेशानी का कारण आप समझते हैं, फिर भी…। शिकायत भरे शब्दों में कहा था, विनीता ने।
‘जमाना बदल चुका है…तुम स्वीकार क्यों नहीं कर लेतीं…? जनकराज सपाट भाव से कह गया।
‘जमाना कितना ही बदल जाय, माता-पिता का सन्तान से रिश्ता तो नहीं बदलता। मेरी कोख के जाए ही यदि इस तरह की बात करते हैं तो दु:ख तो होता ही है…। विनीता ने तर्क दिया तथा बिना विलम्ब किए किचिन की ओर बढ़ गई।
अब जनकराज विचारमग्न हो गए- ‘परेशान होना स्वभाविक है, जिस औलाद को बुढ़ापे की सीढ़ी मानकर पाल-पोसकर बड़ा करो, यदि वही समय पर काम न आए तो माता-पिता कर क्या सकते हैं। विनीता की उम्र क्या किचिन संभालने की है, तिस पर मेरी बीमारी, बिस्तर पर पड़े रहकर ही मैं विनीता के लिए समस्या बन चुका हूं।
थोड़ी ही देर में विनीता नमकीन दलिया बना लाई तथा जनकराज को परोसते हुए बोली- ‘अच्छी तरह खा लीजिए…।
‘भई…जितनी पेट में जगह होगी, उतना ही तो खाऊंगा…। जनकराज प्लेट हाथ में लेते हुए बोले।
‘कुछ खाओगे नहीं तो शरीर कैसे चलेगा? विनीता ने जैसे सीख दी।
‘अरे…अब शरीर में रह ही क्या गया है, आज मरे कल दूसरा दिन…। सहज भाव से कह गए थे जनकराज।
‘बस… कह दिया…तनिक भी नहीं सोचा …मैं किसके सहारे रहूंगी…? आंखें सजल हो गई थीं विनीता की।
‘सच हमेशा सच होता है…इसलिए मौत को याद रखना चाहिए।
‘मगर जिन्दगी है तो मौत से पहले मौत क्यों मांगी जाए।
‘मेरी दशा देख रही हो… छह महीने से बिस्तर पर पड़ा कष्ट भोग रहा हूं…इससे तो अच्छा यही है कि भगवान उठा ले…। जनकराज ने अपनी मृत्यु याचना का तर्क व्यक्त किया।
‘कष्ट भी प्रभु इच्छा से भोग रहे हो, मगर यह भी मत भूलो कि दु:ख के बाद सुख की बरसात होती है। विनीता ने जैसे प्रभु के न्याय और जीवन के प्रति आस्था जताई।
‘अब…यदि सुख की बरसात हो भी जाए तो उसका औचित्य क्या है? जनकराज पूरी तरह बहस की मुद्रा में आ गए।
‘दलिया ठण्डा हो रहा है…इससे पहले कि इस पर घी जम जाए, इसे खत्म कर दो…। आदेशात्मक स्वर था विनीता का।
‘उम्र बीत गई, मगर धमकाने की आदत नहीं गई…। एक आज्ञाकारी बालक की तरह जनकराज ने दलिया खाना शुरू कर दिया। जनकराज के इस ढंग पर विनीता मुस्कुराए बिना न रह सकी।
थोड़ी देर बाद विनीता गर्म पानी टब में रखकर ले आई तथा जनकराज से बोली ‘इसमें पैर डालकर कुछ देर बैठ जाइए… सेंक लगेगी, फिर नींद भी अच्छी आएगी…।
‘मैं सारा दिन बिस्तर पर ही तो रहता हूं…नींद की तुम्हें अधिक आवश्यकता है। सारे दिन खुटती रहती हो… सोचा था औलाद बड़ी होगी…सुख मिलेगा…मगर। आगे के शब्द जनकराज के होठों में दबकर रह गए।
‘इसे ही भाग्य कहते हैं…भाग्य में सुख हो तो परायी औलाद भी अपनी बन जाती है और सुख न हो तो अपनी भी परायी हो जाती है…।
‘तुम ठीक कहती हो, मगर अब किया ही क्या जा सकता है…?
‘करना क्या है…रामचरितमानस बांचिये…औरों के कष्टï बांचने से अपने कष्टï बौने लगने लगते हैं…भगवान राम ने वनवास कैसे भोगा…मां जानकी का पूरा जीवन कष्टï में बीता-दो घड़ी भी चैन से नहीं बिता सकी, बार-बार अग्नि परीक्षा देती रहीं, भ्रातृभक्ति में लक्ष्मण ने राजपाट का मोह त्याग दिया, विरह वेदना सही उर्मिला ने… भरापूरा यौवन अकेले ही व्यतीत किया…अरे उन कष्टों का स्मरण करें तो अपने कष्ट दु:खदायी नहीं लगते…। विनीता ने जैसे रामचरित मानस का सार कह सुनाया।
‘बस…बस…समझ गया, जाहि विधि राखै राम ताहि विधि रहिए…। जनकराज बोले।
इसके अलावा चारा ही क्या है…।
‘ठीक कहती हो, मगर अब कुछ आराम कर लो, मुझ बीमार की सेवा में अपना ध्यान नहीं रखोगी तो बीमार पड़ जाओगी…। जनकराज ने विनीता से कहा।
विनीता किचिन में गई, गैस सिलैण्डर से गैस बन्द की, टोंटी का नल कसकर बंद किया, तदुपरान्त शयन के लिए चारपाई पर आकर लेट गई।
जनकराज को नींद नहीं आ रही थी, अक्सर ऐसा ही होता रहा है, दिन भर बिस्तर पर पड़े-पड़े कभी भी ऐसी झपकी आती है कि घंटों नींद में गुजर जाते हैं, फिर भला रात को नींद कैसे आए, सो करवटें बदलते रहते हैं..। आज भी ऐसा ही हुआ, विनीता की आंखों से भी नींद कोसों दूर थी। श्रीमंत का न आना विनीता को अखर रहा था, सो जान-बूझकर आंखें बन्द किए पड़ी थी। जनकराज भी चुप थे, विनीता की स्थिति समझते थे।
यकायक फोन की घण्टी बजी, विनीता तुरन्त उठ बैठी,- सुनती हूं…किसका फोन है।
‘तुम आराम करो…मैं सुन लेता हूं…। रिसीवर उठाते हुए जनकराज ने कहा।
‘हेल्लो…हां…बोलो बेटा…।
‘पापा…लखन की सप्ताह भर की छुट्टियां हैं…यह आपके पास आने की जिद कर रहा है…। दूसरी ओर से आवाज आई…।
‘बेटा…तुम तो जानते हो न…तुम्हारी मां अकेली है…सब काम उसे अकेले ही करना पड़ता है…लखन आएगा तो परेशान ही होगा…।
‘पापा…तुम ही उसे समझा दो…।
‘किसका फोन है…मुझे दीजिए…। विनीता जनकराज के बिस्तर के पास आकर खड़ी हो गई।
‘निश्चल का है…लखन आना चाह रहा है…।
‘लाओ…मैं बात करती हूं…।  जनकराज से रिसीवर छीनकर अपने कान पर लगाया जानकी ने- ‘हां, बेटा बोलो…लखन आना चाह रहा है, तो भेज दो…।
‘मां… पापा कह रहे हैं…आपको कष्ट होगा…।
‘अरे… तेरे पापा को क्या मालूम…अपने बच्चों के घर आने से कष्ट होता है या खुशी मिलती है…अरे हम तो तरसते हैं…कोई हमारे पास आकर रहे…। आंखें छलछला आई थीं विनीता की।Ó
‘ठीक है मां…लखन आ रहा है…उसका ध्यान रखना…। निश्चल ने कहा।
‘यह बात…अब तू हमें बताएगा…? विनीता ने कहा।
निश्चल ने बिना विनीता की बात सुने ही फोन काट दिया।
‘क्या कह रहा था निश्चल…।
‘कुछ नहीं…।
‘कुछ तो…जब तुम कह रही थीं कि अब तू हमें बताएगा…?
‘बाप है न…अपनी औलाद का दर्द आता ही है।
‘क्या दर्द आता है…।
‘कह रहा था लखन का ध्यान रखना।
‘जब उसे हम पर यकीन नहीं तो भेज क्यों रहा है…तुम भी बैठे बिठाए आफत मोल लेती रहती हो…। जनकराज का स्वर आक्रोशपूर्ण था।
‘क्या मैं अपने बच्चों को नहीं जानती…अरे पोता आ रहा है। कुछ दिन साथ रहेगा…हमारे लिए क्या कम खुशी की बात है?
‘यूं ही छोटी-छोटी खुशियां तलाशती रहा करो…। जनकराज बोले।
‘तुम बताओ…यदि लखन एक सप्ताह के लिए आ रहा है, तो तुम्हें बुरा लग रहा है क्या? जानकी ने जनकराज की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली।
‘न…न…नहीं तो मझे बुरा क्यों लगेगा, मगर तुम अपनी तरफ भी तो देखो…क्या तुम्हारी क्षमता वह पहले वाली रह गई है, जो उसके लिए किचिन में खटोगी? जनकराज ने विनीता की शारीरिक स्थिति पर प्रश्न चिन्ह लगाया।
‘तुम भी बस… अरे अपना बच्चा आ रहा है तो भला शरीर साथ क्यों नहीं देगा। कुछ दिन तुम्हें भी उसके साथ चटोरा बना दूंगी…। लखन के आने के उपरांत किचिन में बनाए जाने वाले व्यंजनों की कल्पना में खो गई विनीता।
‘ठीक है…जैसी तुम्हारी इच्छा?
विनीता अपनी चारपाई पर जाकर लेट गई। पौत्र के आगमन की सूचना ने उसकी आंखों में सपने  बो दिए, सो बोली- ‘सुनो जी…खून का रिश्ता अपने आप बोलता है…।
‘तुम कहना क्या चाहती हो…?
‘यही कि अपना लखन हमें कितना प्यार करता है…जब भी छुट्टियां होती हैं, तभी यहां आने की जिद करता है।
‘जानती हो वह जिद क्यों करता है…घर में रहेगा, तो बहू उसे चैन से नहीं बैठने देगी और यहां आकर खुली शैतानी करेगा…।
‘कुछ भी कहो…उसे हमसे बहुत प्यार है…अरे एक बेटा पोता तो घर में ही रहते हैं…वे तुमसे कितना सम्बन्ध रख रहे हैं…एक बार को पड़ोसी काम आ जाएंगे…पर बेटा काम नहीं आएगा…। विनीता ने अपने बड़े बेटे का स्मरण किया। ‘सब भाग्य के खेल हैं…जिस औलाद के लिए माता-पिता अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं..जरूरी नहीं कि औलाद अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरी उतरे…। जनकराज ने टिप्पणी की।
‘अब परेशान क्यों हो रहे हो…?
‘मैं कतई परेशान नहीं हूं…तुम्हारी बात का जवाब दे रहा हूं…।
‘अच्छा अब सो जाओ…मुझे भी नींद आ रही है…। विनीता ने बात का पटाक्षेप करना चाहा, किन्तु जनकराज ने टोक दिया- ‘मैं जानता हूं…तुम्हारी आंखों की नींद गायब हो चुकी है, मगर अपनी निकम्मी औलाद की एक भी बुराई नहीं सुन सकती…।
‘ठीक कहते हो…बाप कठोर हो सकता है, मगर मां नहीं…अपने कलेजे के टुकड़ों की बुराई क्यों सुनूं… अरे सब अपने-अपने घर-परिवार में चैन से रहें…। मां-बाप को और क्या चाहिए…। विनीता ने सन्तोषी भाव से कहा।
‘चाहे मां-बाप के कलेजे को छलनी-छलनी कर दे…। जनकराज की आवाज में तल्खी थी।
‘तुमसे कितनी बार कहा है…कुछ मत सोचा करो…दिमाग पर बोझ मत दिया करो…ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है…।
‘बढ़ जाता है बढ़ जाने दो…सच तो सच ही रहेगा न… सारे रिश्ते-नाते स्वार्थ भरे हैं…जब तक रिटायर नहीं हुआ था, सभी आगे-पीछे घूमते थे…अब सबके स्वार्थ सिद्ध हो गए तो देखो कैसे कन्नी काट गए…।
‘कहा न…व्यर्थ में मत सोचो…?
‘सोचूं कैसे नहीं गुस्सा तो आता ही है…अब मैं बीमार हूं…तुम भी वृद्ध हो चुकी हो…अन्त समय के लिए आदमी न जाने क्या-क्या सोचता है…मुझे अपनी नहीं, सिर्फ तुम्हारी चिन्ता है…तुमने किस समर्पण भाव से पूरे घर को बांधकर रखा, बदले में क्या पाया?
‘सब कुछ पाने के लिए नहीं किया जाता…अरे…जैसे भी है समय कट तो रहा है…अपना कोई तो है…यही सोचकर सब्र कर लो…जिनके आगे पीछे कोई नहीं होता, वे भी तो जीते हैं…। विनीता ने तर्क दिया।
‘तुम किस मिट्टी की बनी हो…आज तक यही समझ में नहीं आया है। ‘मां किस मिट्टी की बनी होती है…।
विनीता सहज भाव से कह गई। ‘हां…सिर्फ मां ही उस मिट्टी की बनी होती है…।Ó
अतीत का स्मरण कर जनकराज की अश्रुधारा बह निकली…नारी के समर्पित स्वरूप में उन्हें अपनी मां का ममतामयी एवं समर्पित चेहरा अपने आसपास नजर आ रहा था।
डॉ. सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स

Related Articles

STAY CONNECTED

74,334FansLike
5,410FollowersFollow
107,418SubscribersSubscribe

ताज़ा समाचार

सर्वाधिक लोकप्रिय