धर्म, किसी मंदिर, तीर्थ अथवा शास्त्रों में समाहित नहीं होता। धर्म तो धारण करने की चीज है। व्यवहार से धर्म का पालन होता है, सदाचरण से धर्म की रक्षा होती है, शील, संयम और परोपकार से धर्म की वृद्धि होती है। धर्म तो मानव के मन में बसता है। सदैव स्मरण रखा जाने वाला एक सूत्र है-न्यूनतम लेना, अधिकतम देना और श्रेष्ठतम जीना। यही जीवन की सर्वोच्च विद्या है। यही धर्म है। मर्यादाओं का अतिक्रमण सभी के लिए हानिकारक है। अतिवृष्टि हो अथवा अनावृष्टि दोनों ही स्थिति में मर्यादा का उल्लंघन है। इसलिए उनसे किसी का भला नहीं होता। मर्यादाएं समाज को बांधती हैं, सुख पहुंचाती है, जबकि अमर्यादा, पीड़ा देती है। मर्यादाएं व्यवस्थित रखती है, जबकि अमर्यादा अनाचार का कारण बनती है। मर्यादाओं का पालन ही धर्म का पालन है। मर्यादाओं का उल्लंघन अधर्म की श्रेणी में आता है। संसार के सभी प्राणियों में परमात्मा का अंश है इसलिए किसी को बुरा मत समझो, किसी का बुरा मत चाहो, किसी का बुरा मत करो, जिस व्यक्ति का चिंतन इस प्रकार का रहेगा उसके मन में कोई ऐसी बात आयेगी ही नहीं, जो धर्म और नैतिकता के विरूद्ध हो। वह सदा सुख का अनुभव करेगा। दुख उसके पास आयेंगे ही नहीं, मन सदा निर्मल रहेगा। याद रहे निर्मल मन में ही प्रभु का वास होता है।