Sunday, May 19, 2024

कहानी: सीता

मुज़फ्फर नगर लोकसभा सीट से आप किसे सांसद चुनना चाहते हैं |
तेज मूसलाधार बारिश। रात का समय। यही कोई आठ बजे होंगे। सीता अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर घर लौट रही थी। सीता जब सोलह की थी, तभी उसका ब्याह हो गया।  हीरा नाई चालीस का था उस समय।  सीता के माँ-बाप ने देखा कि खुद की दुकान है, अपना कमाता, खाता है। चालीस का हुआ तो क्या हुआ। बिटिया खुश रहेगी और हर शुक्रवार जब दुकान बंद रखता है तो भी घर पर यूँ ही पड़ा नहीं रहता बल्कि हाथ ठेला चलाकर मज़दूरी भी करता है।
शर्मा दीदी ने आज उसे देर तक घर पर रोक लिया था और काम खत्म करते-करते रात  हो गई।  बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। एक ज़ोर की बिजली चमकी और सारे शहर की लाइट गुल।
गुडिय़ा उस समय तीन साल की थी और बन्नो छह बरस की।
सीता ने गुडिय़ा को सीने से लगाया और बन्नो का हाथ ज़ोर से पकड़कर चली जा रही थी। घर जल्दी पहुंचना ज़रूरी था।  हीरा की तबीयत जो ठीक नहीं थी। चलते-चलते अचानक सीता को अहसास हुआ कि  जैसे कोई पीछा कर रहा है। कल्लू ने सीता का हाथ जोर से पकड़ अपनी ओर खींचने की कोशिश की। सीता के साथ ये कोई पहला वाक्या नहीं था, लेकिन माँ बनने के बाद सीता अब सिर्फ सीता नहीं रही थी, राक्षस से लडऩे के लिए भवानी बनना वो जानती थी।
कल्लू हाथ छोड़, आदमी बीमार है, घर जल्दी जाना है। सीता जोर से चिल्लाई। लेकिन ये क्या कल्लू ने तुरंत सीता का हाथ छोड़ दिया। सीता स्तब्ध आश्चर्यचकित, शैतान शरीफ कैसे बन गया? लेकिन कल्लू के अंदर का शैतान तो अब जाग रहा था। उसकी नजऱ सीता को छोड़ बन्नो पर थी और ये समझते सीता को देर न लगी।  सीता ने नीचे पड़ा पत्थर उठाया और दे मारा उसके सिर पर। बन्नो भाग गुडिय़ा को लेकर भाग। सीता जोर-जोर से चिल्ला रही थी। तेज बारिश/अंधियारी रात/सड़क पर कोई नहीं/ सिर्फ और सिर्फ मूसलाधार बारिश।
बन्नो एक गली में गुडिय़ा को लेकर दुबकी बैठी, चुपके से देख रही थी। कल्लू के सिर पर खून सवार था। सीता को एक तरफ धक्का दे, कल्लू फिर बन्नो की ओर बढ़ा।  बन्नो की तरफ उसने कदम बढ़ाया ही था कि  पीछे से सीता ने ललकारा। कल्लू का उस पर अट्टाहास कर बन्नो की तरफ कदम बढ़ाना, सीता के क्रोध की पराकाष्ठा थी। एक जोर सी बिजली चमकी और कल्लू को सीता का चेहरा दिखाई दिया. सीता नहीं साक्षात् भवानी सामने थी। सीता ने पास पड़ी लोहे की रोड से वार किया, अंतिम वार और कल्लू वहीं ढेर।
कल्लू का अट्टाहास/उसका दुस्साहस/माँ की ललकार और अंतिम प्रहार , बन्नो गुडिय़ा के साथ सब देख रही थी।
इस दुनिया में जीना एक संघर्ष है और संघर्ष तब और बढ़ जाता है, जब आप स्त्री जाति में हों। सीता अपनी बेटियों को सिखा देना चाहती थी संघर्ष से जीने और लडऩे का हुनर।
बारिश थम चुकी थी और घर भी अब नजदीक था। लाइट वापस आ गई लेकिन हीरा नाई की  जीवन ज्योत अपने  अंतिम समय में थी। बन्नो को अपने सीने से लगा, हीरा आशा भरी नजऱों से सीता को बस एकटक देखे जा रहा था। गुडिय़ा बापू-बापू की रट लगा रही थी और हीरा बस आँखें खोले निढाल पड़ा था। बच्चों के रोने की आवाज़ सुन आस-पड़ोस के रिश्तेदार आए, बच्चों को संभाला और सीता का ढाढस बंधाया।
हीरा की लम्बी बीमारी और बढ़ते खर्चे ने रिश्ते-नातों की परिभाषा समझा दी थी। जब जरूरत थी पैसों की, तब तो कोई न आया, अब आए हैं दु:ख-दर्द दिखाने, ढोंगी कहीं के। मुझे किसी ढोंगी रिश्तेदारों की मदद नहीं चाहिए। सीता मन ही मन बड़बड़ाई ।
अल सुबह, घर पर रखे हाथ ठेले पर ही हीरा के शव को रख चल पड़ी श्मशान। बन्नो और गुडिय़ा उसके पीछे-पीछे।  सीता ने निर्णय लिया -अब अकेले ही आगे बढऩा है और उद्देश्य- सिर्फ एक, कल्लू जैसे लोगों से भरी हुई इस दुनिया में अपने बच्चों को इतना सशक्त बनाना कि वो संघर्ष कर सकें/लड़ सकें/ बिना रुके /बिना थके /बिना डरे।
दुनिया में सभी लोग खऱाब नहीं होते, कुछ अच्छे भी हैं। जैसे कि वो पुलिस इंस्पेक्टर जिसने सीता को मामले से दूर रखा क्योंकि कल्लू और उसकी अपराधी प्रवूत्ति को अच्छी तरह से जानता था और जैसे कि श्मशान के पंडित तिवारी जी, जो कि हीरा नाई के बड़े मुरीद थे।  हमेशा बाल उसी से बनवाते थे। सीता की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने सामाजिक परम्पराओं और बंधनों को तोड़ा।  पूरा क्रियाकर्म सीता के हाथों करवाया। बन्नो पास खड़ी सब देख रही थी, माँ के हाथ में अग्नि/बापू का धधकता शरीर/गुडिय़ा का बिलखकर रोना और मां की आँखों का सूखा पानी। बालमन न जाने कितने तूफानों का सामना कर रहा था।
सभी कार्यक्रम होने के बाद अब नई शुरुआत करनी थी, लेकिन फिर वही दूसरों के घर झाड़ू-पोंछा करना, सीता के मन में  खटक रहा था।  घर के बाहर घूमते हुए उसकी नजऱ अपनी ही दुकान पर पड़ी। हीरा ने शादी के बाद दुकान का नाम सीता सैलून रख दिया था। बस निश्चय किया कि  हीरा की जगह अब वो खुद लेगी।  हीरा ने अपने जीतेजी सैलून का काम सीता को सिखा दिया था, लेकिन समाज के डर से कभी करने नहीं दिया। शुरू-शुरू में दुकान में कोई नहीं आता, सब एक औरत को देखकर  बिचक जाते।  और जो आते भी वो कल्लू की तरह होते।
खैर, ऐसे कल्लू से निपटना तो सीता अच्छे से जानती थी। एक औरत का सैलून चलाना भारतीय समाज और परंपरा के विपरीत है, यह जानते हुए भी सीता अपने निर्णय पर अडिग थी। कुछ हफ्ते गुजऱे।  धीरे-धीरे मोहल्ले के लोग अपने बच्चों को लेकर आने लगे और  सीता सैलून एक बार फिर चल पड़ा।  कुछ पैसे आए तो सीता  ने बच्चों का दाखिला पास के सरकारी स्कूल में करा दिया।
एक दिन पंडित तिवारी जी मोहल्ले से गुजर रहे थे और उनकी नजऱ सीता सैलून पर पड़ी। पंडित जी अपने आप को रोक न पाए। दरवाजा खटखटाते हुए अंदर गए। सीता ने पंडित जी को  देख प्रणाम किया। दीवार पर हीरा की तस्वीर देख पंडित जी की आँखों में आंसू उमड़ पड़े। पंडित जी बोले- बेटा मैंने जीवन में ब्याह तो नहीं किया, लेकिन ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि  कभी मुझे बेटी दे तो सीता जैसी बेटी दे। एक पंडित के मुख से नाई की स्त्री को बेटी की तरह मानना, सीता तो बस पंडित जी से लिपटकर जैसे बिलख पड़ी, लगा बापू फिर लौट आए हैं। हीरा के जाने के बाद यह पहला मौका था जब सीता की आँखों में आँसू थे।
पंडित जी जहाँ भी जाते, सीता के संघर्ष की कहानी जरूर सुनाते, चाहे वो विवाह संस्कार हो मुंडन या फिर अंतिम संस्कार ही क्यों न हो।  अब तो मोहल्लों की औरतों ने भी आना शुरू कर दिया।  सीता का संघर्ष लोगों की जुबाँ से होता हुआ अख़बारों की सुर्खियां बन गया।  दिन-महीने और वर्ष गुजऱे।  बच्चे बड़े हो गए। सीता ने बन्नो को सरकारी कॉलेज में दाखिला दिला दिया।  पार्ट टाइम कोर्स का अपना फायदा है, पढ़ते-पढ़ते कुछ कमाया भी जा सकता है। पांचवी पास सीता, समय बीतने के साथ-साथ पढ़ाई के बारे काफी कुछ जान गई थी।
सीता ने अब अंतिम फैसला लिया।  हीरा के जाने के बाद निश्चय किया था कि बिटिया को  अपने पैरों पर खड़ा करके रहूंगी।   कॉलेज से लौटते वक्त बन्नो की नजऱ दुकान के बोर्ड पर गई।  सीता सैलून की जगह लिखा था सीता ब्यूटी पार्लर। सीता ने दुकान की चाबी बन्नो को सौंपते हुए कहा- बेटा बहुत थक गई हूँ , अब कुछ आराम करना है।  बन्नो ने अम्माँ को सीने से लगा लिया।
गौरव गुप्ता – विनायक फीचर्स

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