आइये आज अपने जीवन में असत्य बोलने से हमारे शरीर व मन पर क्या प्रभाव पड़ता है पर विचार करते हैं ?
सोचना कुछ, कहना कुछ और करना कुछ, इसी को वैचारिक दृष्टि से असत्य कहा जाता है। सार्वजनिक जीवन में आदर्श की बातें करना और व्यक्तिगत जीवन में उसके विपरीत आचरण करने को ही असत्य और झूठ-फरेब कहा जाता है।
झूठ-फरेब करने वाला सोचता है कि वह बहुत फायदे में है और बहुत जल्द उपलब्धियों के मुकाम पर पहुंच जाएगा लेकिन उसे नहीं पता कि इस झूठ-फरेब की वह कितनी बड़ी कीमत चुकाता है। झूठ के चलते अक्सर परिवार में कलह, द्वंद्व, कटुता और अमर्यादा का बोलबाला हो जाता है।
शास्त्रों के अनुसार एक झूठ से असत्य बोलने वाले व्यक्ति के कई पुण्य समाप्त हो जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे टूटे बर्तन में कोई तरल पदार्थ रखा जाए तो वह धीरे-धीरे बह जाता है।
लोक-जीवन में घर-घर में कुशल-मंगल के लिए लोग मनौतियां मानते हैं और परिवार के लोग उसे पूरा करने के लिए भगवान की शरण में जाते हैं और काफी पैसा खर्च कर आध्यात्मिक अनुष्ठान करते हैं। इन सारे अनुष्ठानों में सत्य और सदाचार के भाव होते हैं। किसी ग्रंथ में झूठ-फरेब बोलने के श्लोक, मंत्र, भजन नहीं होते।
पूजा तो सदाचार की होती है लेकिन पूजा करने वाले के मन में जब अहर्निश असत्य, छल-कपट होता है तो फिर भगवान एवमस्तु और तथास्तु कैसे कह देंगे? यह सामान्य दिमाग से सोचा जा सकता है। यदि भगवान एवमस्तु कहते भी हैं तो इसका मतलब है, हम झूठ-फरेब की जो गतिविधियां दूसरों के साथ कर रहे हैं वही हमारे साथ भी होंगी।
धर्म-ग्रंथों में कहा गया है कि झूठ का खामियाजा अंतत: व्यक्ति को भुगतना पड़ता है। रामचरितमानस में भी श्रीराम आदर्श के प्रतीक हैं। पूजा श्रीराम की करें और आचरण रावण का तो इससे बड़ा विरोधाभास दूसरा कोई नहीं हो सकता। झूठ-फरेब से बना आलीशान बंगला एक दिन हमें और हमारे परिजनों को डराने लगता हैं । इसके अलावा झूठ-फरेब के बल पर मिली उपलब्धियों और मान-सम्मान की कलई खुलने का डर भी धीरे-धीरे मन में समाने लगता है।
सच तो यह है कि एक झूठ को छिपाने के लिए अनेक झूठ बोलने पड़ते हैं। बस भय-मिश्रित यह स्थिति तनाव की जननी बन जाती है और यह जननी क्रोध, चिड़चिड़ापन, उलझन, डिप्रेशन, गाली-गलौज और असहजता रूपी ढेरों कुपुत्रों की फौज खड़ा कर देती है और व्यक्ति किसी और से नहीं बल्कि इन्हीं वैचारिक समस्याओं से परेशान हो जाता है।
– गौतम चौधरी