जब कोई विपत्ति आती है, तो मनुष्य कहता है कि ऊपर वाले की मर्जी। ऊपर वाले से उसका तात्पर्य परमात्मा से है। परमात्मा का निवास वह कहीं ऊपर मानता है। यह उसकी बहुत बड़ी भूल है, क्योंकि परमात्मा तो विद्युत तरंगों की भांति कण-कण में विद्यमान हैं। सबके बाहर भी और सबके भीतर भी।
यदि परमात्मा सबके भीतर न होता तो सबके भीतर का निर्माण कैसे करता। सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने से ही वह सबके भीतर-बाहर की जानता है। यदि सर्वव्यापक सर्वज्ञ न होता तो अल्पशक्ति, अल्यज्ञ, अल्पायु होता। ये अभाव उसमें है नहीं। इसीलिए वह एक देशी नहीं, अर्थात एक निश्चित स्थान पर नहीं, सर्वदेशी है, अर्थात हर स्थान में है।
मनुष्य को चाहिए कि वह जब भी जहां भी रहे, सदैव, सर्वत्र, सबमें, सर्वज्ञ, शक्तिमान, परम दयालु, परम कृपालु परमात्मा का स्मरण चिंतन करे। परमात्मा सदैव है, सर्वत्र है, यहां भी है और वहां भी हैं। हम जहां भी हैं वह वहां भी है। वह सब कुछ जानता है, जो भी हो रहा है, सब उसकी दृष्टि में है। हमारी कोई क्रिया उससे छिपी नहीं है। ऐसा निश्चिय रहेगा तो पाप से बचे रहोगे। पाप से बचे रहोगे तो कोई विपत्ति आयेगी ही नहीं।