दृश्य एक! एक कोरियर आता है। मैं देखता हूं मेरे एक सहकर्मी मित्र की बेटी की शादी का स्थानीय कार्ड मुझे कोरियर से प्राप्त होता है। दूसरे दिन कार्यालय में मित्र से मिलने पर मैं कार्ड के कोरियर से मिलने की चर्चा करता हूं तो उत्तर मिलता है, ‘अरे यार, कौन घर-घर जाकर कार्ड बांटे। पैसा फेंक-तमाशा देख’।
मैं मन ही मन शादी जैसे पारिवारिक आयोजन में मान-मनुहार, आत्मीय आमंत्रण की जगह, एक औपचारिकता, एक प्रदर्शन पाकर अंदर ही अंदर खिन्न हो उठता हूं।
जो कार्ड आया है, वह मूल्य की दृष्टि से पांच सौ रूपयों से भला क्या कम का होगा। उसमें गणेश भगवान की एक छोटी सी मूर्ति चिपकी हुई है। वह पालिथिन के पैकेट में बंद है-संपन्नता के इस प्रदर्शन की तुलना में मुझे आत्मीय भाव से घर पहुंचकर बुलाना और स्मृति के लिये एक सरल, सहज कार्ड कहीं बेहतर लगता।
दृश्य दो। मैं एक विवाह समारोह में पहुंचता हूं। बारात आने में विलंब है, अत: मैं स्टेज के पास बैठ जाता हूं। मैं देखता हूं व्यर्थ की इतनी सारी सजावट, गुलदस्ते, बल्बों की चकाचौंध। यह सब वैभव प्रदर्शन किस लिये? मैं नहीं समझ पाता।
दृश्य तीन। जयमाल का आयोजन संपन्न हो रहा है। फोटोग्राफर ने कैमरा सैट होने तक दूल्हा-दुल्हन को रोक रखा है।
पंडित जी विवश से मंत्रोच्चार दुहरा रहे हैं। दुल्हन जयमाला डालने को अग्रसर होती है तो दूल्हे के दोस्त उसे कंधों पर उठा कर ऊंचा कर लेते हैं। फिर दुल्हन को भी उसके पास खड़े लोग कमर से पकड़ कर ऊपर उठाते हैं और जयमाला पड़ती है। लोग तालियां बजाते हैं। इस उठा पटक में दुल्हन के कमर में बंधी किराये की सोने की पालिश की करधनी टूट कर लटक जाती है।
अस्तु। इस फूहड़ता का मतलब आप ही समझें। पीछे से कोई कहता भी है-अरे अगर जयमाला नहीं डलवानी है तो बारात लेकर आये ही क्यों?
दृश्य चार। प्रीतिभोज। टेंट में कुछ गरीब बच्चे घुसने की फिराक में हैं-दुत्कारे जा रहे हैं। उन्हें इस पारिवारिक सुअवसर पर खाना खिलाया जाना उचित नहीं होता? जो सम्मानित अतिथि भोजन के लिये के लिये धक्का मुक्की कर रहे हैं, उन्हें काफी वाला, पान वाला, तवा सब्जी वाला, हर कोई भीड़ के कारण टाल सा रहा है। कोई आग्रह नहीं।
कुछ महिलायें अपनी कीमती साडिय़ां बचा रही हैं। भरी ठंड में उन्होंने आगे पीछे गहरे-बड़े गले के ब्लाउज पहन रखे हैं। कुछ बुजुर्ग जो इस गिद्ध भोज में खाली सलाद लिये डोल रहे हैं-७थोड़ा सा पुलाव खाकर ही रह जाते हैं। चाइनीज, नानवेज, इमरती, दूध वगैरह वगैरह के स्टाल-शो बिजनेस व प्रति प्लेट मोटी रकम चुकाने के बाद भी लोग भूखे ही रहते हैं। लोग लिफाफा देते समय मन ही मन हिसाब लगाते हैं कि कितने लोग फंक्शन में जा रहे हैं। क्या अजीब सा नहीं लगता, यह सब।
विवाह दो व्यक्तियों, दो परिवारों का एकीकरण है। इस सामाजिक संस्कार में दिखावा कम और आत्मीय भाव अधिक होना चाहिये। यदि धार्मिक मानसिक दबाव के चलते सुखद हो सके तो बेहतर है विवाह मंदिर में हों। विवाह में मर्यादित, शालीन, मितव्ययता नव दंपति पर व्यर्थ आर्थिक दबाव नहीं बनाती। वही संचित राशि उनके नव जीवन के प्रारंभ में सहायक बन सकती है।
आज विवाह आयोजनों में अशिष्टता के एक नहीं, ढेरों दृश्य देखने मिलते हैं। यातायात प्रभावित कर सड़क घेर कर टेंट तानना, दहेज का प्रदर्शन, लड़की वालों को छोटा साबित करने का प्रयत्न, बारात में लड़के ही नहीं, लड़कियों का सड़क पर भोंडा नृत्य, बेतहाशा आतिशबाजी, बैंड, व्यर्थ सजावट, भोजन में आवश्यकता से अधिक विविधता अनुचित है। जो पैसे मां बाप शादी में व्यय करते हैं, वही बच्चों की शिक्षा, उनके व्यक्तित्व के विकास में करें तो समाज बेहतर नागरिक पा सकेगा।
आशा है शादी एक डीसेंट-काज’ बनेगा और उसी डीसेंट तरीके से संपन्न होगा। विवाह एक संस्कार है न कि फूहड़ता का प्रदर्शन। एक होड़ में पड़कर, उधार के पैसों से ऐसा अपव्यय विवशता न बने, यही कामना है। दोनों पक्षों को बराबरी का सम्मान मिले, समाज का आशीष और समर्थन मिले, तभी विवाह संस्कार बना रह सकेगा।- [फोटो- प्रतीकात्मक]
-विवेक रंजन श्रीवास्तव