ऋषि मनीषी पुरातन काल से ही मानव को प्रभु स्मरण का पाठ पढाते आ रहे हैं। स्मरण का अर्थ है याद करना, उसके बारे में बार-बार सोचना, उनका चिंतन करना, किसी मंत्र का बार-बार जाप करना। हमारा मन किसी न किसी चीज के बारे में पल-पल सोचता है।
जिस चीज के बारे में सोचता है, उसकी शक्ल बनाने की कोशिश भी करता है। मन की सोचने की शक्ति को स्मरण और स्वरूप बनाने की शक्ति को ध्यान कहा जाता है। मन सबसे अधिक उस चीज का स्मरण करता है, जिसके साथ उसका प्यार होता है और जिस चीज का जितना अधिक स्मरण करता है, उतना ही उस चीज के प्रति झुकाव बढ़ता जाता है।
हमारा मन अनन्त काल से संसार के पदार्थों का स्मरण करता चला आ रहा है। उसके भीतर इन पदार्थों के स्वरूपों की गहरी छाप लग चुकी है। स्वाभाविक तौर पर मन इनके बारे में ही सोचता और ध्यान करता है। इनका ध्यान करते और सोचते-सोचते मन इनका रूप हो चुका है।
ऋषियों और मनीषियों का कथन है कि मन के इस स्वभाव का लाभ उठाकर इसे अविनाशी प्रभु के स्मरण में लगाना चाहिए। मन के स्मरण करने के स्वभाव को नहीं स्मरण के आधार को बदलना चाहिए। मन प्रभु का स्मरण करेगा तो प्राणी का कल्याण होगा, उसका लोक-परलोक सुधरेगा।