महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से जो प्रश्र पूछे थे, उनमें से एक प्रश्र यह भी था ‘तपस: किं लक्षणम्’ अर्थात तप के क्या लक्षण हैं? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया था ‘स्वधर्मवृतिम्’ अर्थात अपने कर्तव्य कर्म को धर्मानुसार करते रहना ही तप है।
तप से प्रयोजन यह है कि उद्देश्य प्राप्ति के लिए अपने कर्तव्य निभाते हुए सुख प्राप्त हो या दुख प्राप्त हो, गर्मी हो या सर्दी, नाना प्रकार के पदार्थ मिले अथवा भूखे भी रहना पड़े, मान-सम्मान मिले अथवा अपमान, कष्ट-क्लेश हो अथवा प्रसन्नता के अवसर प्राप्त हों इन सबको सहज भाव से समभाव से सहन करना और अपने लक्ष्य की ओर ही आगे बढ़ते जाना ही तप है, परन्तु आजकल तो तप के भी उल्टे अर्थ लिये जा रहे हैं।
केवल शरीर को भूखा मारना अथवा पीड़ा देने को ही तप मान लिया गया है, जबकि उपनिषद के अनुसार ‘तपसाऽनाशकेन’ अर्थात जो शरीर का नाशक न हो वह तप है, परन्तु आजकल तपस्वी उसी को समझा जाता है जो बांह या टांग सुखा दे, सर्वथा नग्र रहे, अग्रि में तपे, महीनों भूखा रहे, जो सर्वथा अन्न का त्याग कर दें, परन्तु ऐसे तप तामसी तप हैं। शास्त्र की दृष्टि से इनका अधिक मूल्य नहीं। तामसी तप भी वहीं तक सीमित रहना चाहिए जितने से शरीर को धातुओं में विषमता पैदा न हो। वात, पित्त, कफ कुपित न हो।