हम कितने भी झूठे हों, बेईमान हों, दूसरों को विश्वास में लेकर विश्वासघात करने वाले हों, कितने भी दुर्गण हमारे भीतर हों, परन्तुम हम अपना जनप्रतिनिधि, सभासद से लेकर विधायक, सांसद तक ऐसा चाहते हैं जो कर्त्तव्यनिष्ठ हो, बेदाग हो, ईमानदार हो, वायदे करके उन्हें पूरा करने वाला हो। नहीं चाहेंगे कि वह बेईमान हो, झूठा हो, चुने जाने के बाद हमारी सुध ही न ले, हमें पहचानना ही गंवारा न करे, ठीक यही बात लोक व्यवहार में भी लागू होती है।
हम दूसरों से जो अपेक्षाएं करते हैं, वैसे हम स्वयं बनने का प्रयास नहीं करते। यदि आपको कोई व्यक्ति धोखा देता है, आपके साथ विश्वासघात करता है, उपकार के बदले प्रत्योपकार नहीं अपकार करता है, आपसे उधारी लेकर लौटाता नहीं तो आप उसके बारे में कैसी राय रखते हैं? इस बात को आप स्वयं जानते हैं, परन्तु कभी यह नहीं सोचते कि यदि हम स्वयं किसी के साथ इस प्रकार का व्यवहार करते हैं तो वह हमारे प्रति कैसे विचार रखेगा।
हम लोग विद्वानों से धर्म गुरूओं से धर्म की भिन्न-भिन्न प्रकार की व्याख्याएं सुनते हैं, परन्तु धर्म की व्याख्या तो सीधी सरल है कि हम दूसरों से वही व्यवहार करे, जिस प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से अपने प्रति चाहते हैं। आपको कोई किसी भी प्रकार से मानसिक, शारीरिक पीड़ा देता है तो क्या आप उसे पसंद करेंगे?
नहीं ना तो फिर आप भी सुधर जाईये। आप भी वह व्यवहार दूसरों से सपने में भी न करें, जो आपको अपने प्रति पसंद नहीं। यह सिद्धांत धर्म को पूर्ण रूपेण व्याखित कर देता है इसलिए आज से और अभी से ही इस सिद्धांत का पालन आरम्भ कर दें फिर देखिए आप स्वयं को परमात्मा के कितने निकट पाते हैं।