निर्धन सौ रुपये की कामना करता है। एक सौ रुपये का स्वामी एक हजार की इच्छा करता है। जिसके पास एक हजार हो जाये तो लखपति बनना चाहता है, लखपति बन जाने पर वह करोड़पति बनना चाहेगा। करोड़पति के बाद अरबपति और फिर राजा बनने की कामना, राजा चक्रवती सम्राट बनने के स्वप्न देखने लगता है।
सम्राट बनकर भी उसे चैन नहीं मिलती वह स्वर्ग के अधिपति इन्द्र बनने की लालसा पाल लेता है, परन्तु वह कुछ भी बन जाये प्रभु की भक्ति के बिना मन को शान्ति मिलना असम्भव है, क्योंकि संतोष के बिना शान्ति असम्भव है और संतोष मिलेगा प्रभु भक्ति से। कवि तुलसीदास की एक चौपाई इस संदर्भ में बहुत सटीक है, धन हीन कहे धनवान सुखी, धनवान कहे सुख राजा को भारी, राजा कहे चक्रवर्ती सुखी, चक्रवर्ती कहे सुख इन्द्र को भारी, इन्द्र कहे चतुरानन सुखी, चतुरानन कहे सुख विष्णु को भारी, तुलसीदास विचारी कहे प्रभु भक्ति बिना सब लोक दुखारी।’
धन कमाना बुरा नहीं, धन कमाने की आज्ञा वेद भी देता है, क्योंकि धन के बिना न जीवन चलता है, न गृहस्थी चलती है, न सामाजिक, धार्मिक दायित्व पूरे होते हैं, परन्तु अनीति से धन कमाना अनर्थ का कारण बनता है। सोने की नगरी बसाओ, परन्तु वह नीति की नींव पर रखी द्वारिका हो, अनीति पर खड़ी लंका नहीं। हम सबके जीवन का आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम हो, चक्रवर्ती सम्राट अहंकारी रावण नहीं।