जगत नियन्ता परमपिता परमात्मा के प्रति समर्पण आत्मा की वह गति है, जिसमें सारी आकांक्षाएं, सभी स्वार्थ, सांसारिक मोह-माया नष्ट हो जाते हैं। आत्मा स्व की चिंता से रहित होकर अपने आराध्य परमात्मा देव में ही लीन हो जाती है। अपने अस्तित्व को भुला देने में ही उसे परमात्मा के अनन्य सौंदर्य के प्रत्यक्ष दर्शन हो पाते हैं। उस समय आत्मा इन्द्रियगत विषयों से परे होकर अपने अस्तित्व को भूलकर परमात्मा के साथ एकमेव हो जाती है। इसी स्थिति का नाम मोक्ष है।
प्रभु प्राप्ति के लिए सभी वासनाओं और आकांक्षाओं को समाप्त करके आत्मा का शुद्ध तथा पवित्र होना अनिवार्य है। उस स्थिति में अथवा ऐसी स्थिति आ जाने पर साधक को यह समझ में स्वत: आ जाता है कि परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, जिसे प्राप्त किया जा सके। उसकी सारी ऊर्जा केवल प्रभु के लिए ही उसमें समा जाने के लिए ही रहती है और इस प्रकार परमात्मा के अनेक गुण उसमें आ जाते हैं और वह देवत्व (मोक्ष) को प्राप्त हो जाता है।