जब पर ब्रह्म परमेश्वर को भली भांति जानने वाले ज्ञानी पुरूष के लिए सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मस्वरूप दृष्टिगोचर होने लगता है। उस अवस्था में उस ज्ञानी पुरूष में प्रत्येक के प्रति मोह, ईर्ष्या, शत्रुता, वैमनस्य का भाव समाप्त हो जाता है।
जब मानव प्राणी मात्र को अपना ही अंग समझने लगता है, अपने से पृथक किसी को जाने नहीं तब वह किसी से घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, वैमनस्य और शत्रुता का भाव क्यों रखेगा? किसी के भी प्रति उसके मन में घृणा नहीं उपजेगी, दुर्भावना पैदा नहीं होगी, वह अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन करेगा।
ऐसे में हमारे भीतर प्रत्येक प्राणी के प्राणों की रक्षा करने का भाव भी रहेगा। किसी के प्राण लेने की भावना आयेगी ही नहीं। तब अपनी और अपने परिवार की उदरपूर्ति और वैभव की प्राप्ति के लिए किसी दूसरे को हानि पहुंचाने अथवा किसी की हकतल्फी करने का विचार ही कहां रहेगा।
तब अपना स्वार्थ सिद्ध करने का भाव आयेगा ही नहीं। न स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी को कष्ट पहुंचाया जा सकेगा, अपितु सब प्राणियों के सुख और कल्याण के लिए अपनी आहुति देने तक की भावना आ जायेगी। यही है वास्तविक अहिंसा और यही है अहिंसा का सच्चा स्वरूप। अहिंसा वास्तव में वीरो का भूषण है, कायरों की दुर्बलता नहीं।