हम जो कार्य करे ज्ञानपूर्वक करे, विचार कर करे, जो कार्य ज्ञानपूर्वक किया जायेगा उसका परिणाम कभी अशुभ नहीं हो सकता। उसका शुभ फल शीघ्र ही मिल सकता है और विलम्ब से भी, परन्तु फल शुभ होगा यह निश्चित है। इसलिए सांसारिक कार्यों को करते हुए सदैव ज्ञान का आश्रय लेना चाहिए। मनुष्य होने का पहला लक्ष्य ज्ञान है। मनुष्य और पशु में मुख्य अंतर यही है कि पशु के पास मनुष्य की तरह ज्ञान, विवेक और बुद्धि नहीं होती, जो मनुष्य अज्ञान में रहना ही पसन्द करते हैं उन्हें मनुष्य की अपेक्षा पशु कहना ही उपयुक्त है। स्वयं को मनुष्य की श्रेणी में रखने के लिए अथवा अपनी मनुष्यता की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए ज्ञानी विवेकी तथा बुद्धिमान बने रहने का प्रयत्न करते रहना चाहिए। जिस ज्ञान का आश्रय लेकर हम श्रेष्ठ कर्म करने में समर्थ हो, उस ज्ञान की रक्षा करना हमारा पुनीत कर्तव्य है। ज्ञान की रक्षा कैसे होगी? मनुष्य का कार्य स्वयं ज्ञानवान होने से नहीं चल सकता, बल्कि जो ज्ञान हमें है, उस ज्ञान को संसार में सर्वत्र फैलाना चाहिए, ज्ञान को स्वयं तक सीमित रखने का परिणाम यह होगा कि वह ज्ञान आपके साथ ही समाप्त हो जायेगा। संसार उस ज्ञान से लाभान्वित नहीं हो पायेगा। इसलिए मिले ज्ञान को स्वयं तक सीमित नहीं रखना चाहिए। ज्ञान को स्वयं तक सीमित रखना स्वार्थ भी है, जबकि ज्ञान का प्रसार करना परमार्थ है और परमार्थी परमात्मा की कृपाओ का पात्र सदैव बना रहता है।