चिंता चिता समान यह कथन अक्षरश: सत्य है। चिंता से न केवल शरीर की शक्ति का ह्रास तथा मानव शक्ति का नाश होता है, प्रत्युत इससे मनुष्य द्वारा किया गया कार्य भी निम्र स्तर का होता है। यह मनुष्य की योग्यता को कम कर देती है, जिससे मनुष्य अपने काम को सुचारू रूप से नहीं कर पाता, जब उसका मन क्षुब्ध और चिन्तित हो। मन अपनी सम्पूर्ण शक्ति और योग्यता से काम करे, उसके लिए आवश्यक है वह दुखों से, चिंताओं से विकारों तथा क्षोभों से पूरी तरह मुक्त हो। चिन्तित मस्तिष्क कभी ठीक प्रकार से नहीं सोचता, पूर्ण क्षमता के साथ नहीं सोचता, न्याययुक्त नहीं सोच पाता। आदमी के पाचन तंत्र पर तो चिंताओं तथा क्षोभ का इतना बुरा प्रभाव पड़ता है कि देखकर आश्चर्य होता है। जब आदमी का पाचन तंत्र ही अव्यवस्थित हो जाता है, तब सारे शरीर का प्रबन्ध ही अस्त-व्यस्त होने लगता है। वह रूग्ण हो जाता है। चिंता से न केवल स्त्रियां-पुरूष बूढे से दिखाई देने लगते हैं, प्रत्युत सचमुच ही बूढे हो जाते हैं। यदि कोई वैज्ञानिक संसार में चिंता को नष्ट करने का मार्ग ढूंढ ले तो वह संसार का बहुत बड़ा उपकार करेगा। उसके अन्वेषण और आविष्कार को युगो-युगो तक आदर के साथ याद किया जाता रहेगा।