पवित्र गायत्री मंत्र प्रारम्भ होता है ‘ओम भू भुर्वस्व:’ से। वेद का ऋषि कहता है कि हे प्रभो आप दुख विनाशक हैं, आनन्द दायक हैं, सुख स्वरूप हैं। आपकी शरण मिले तो समझो दुख भाग गया, आनन्द की प्राप्ति हो गयी। जब दुख भागेगा तो सुख प्राप्त होगा, फिर आनन्द ही आनन्द है।
परमात्मा को सुख स्वरूप इसलिए कहा गया है कि उनका रूप और स्वभाव ही सुख स्वरूप है। अग्रि का स्वभाव है गर्मी देना, जल का स्वभाव है शीतलता देता। वायु का स्वभाव है स्पर्श देना। परमात्मा का भी एक स्वभाव है सुख देना, जितना भी कोई उसका सानिध्य करेगा, उसके समीप रहेगा, बस उतना ही सुख मिल जायेगा।
आग के जितना निकट हाथ करोगे उतनी गर्मी लगेगी, जल के भीतर जितनी देर रहोगे उतनी शीतलता मिलेगी। वायु के साथ शरीर को जितना स्पर्श करोगे उतना ही आपको स्पर्श करेगी। ऐसे ही भगवान के जितना समीप आते जायेंगे, भगवान उतने ही दुख दूर करेंगे, सुख मिलता जायेगा, आनन्द प्राप्त होता जायेगा।
भगवान को सुख स्वरूप कहा गया है, सच्चिदानन्द कहा गया है, आनन्द स्वरूप कहा गया है अर्थात जिसका रूप ही आनन्दमय है। अग्रि अपने स्वभाव से अलग नहीं हो सकती, आग कभी शीतल नहीं हो सकती, जल को आप गर्म कर दें उसका स्वभाव ठंडा होने का है कुछ समय बाद ठंडा हो जायेगा। इसी प्रकार परमात्मा का स्वभाव सुख स्वरूप है, जितना उसके सानिध्य में रहोगे, उतना ही सुख प्राप्त होता रहेगा।