धर्म प्रदर्शन की वस्तु नहीं, बल्कि अन्तर्मन से सभी प्राणियों के प्रति आत्मीय भाव रखना ही धर्म है, ईश्वर की भक्ति है, क्योंकि ब्रह्मांड के सभी प्राणी परमपिता परमात्मा के अंश हैं। ईश्वर भक्ति समस्त व्याधियों की एक मात्र औषधि है। जो इस औषधि का सेवन करेगा, वही तो आनन्द के सागर में गोते लगायेगा, किन्तु हमने धर्म के तत्व को नहीं समझा, बल्कि विभिन्न सम्प्रदायों और जातियों में बंटकर हमने अपनी बुद्धि को कुंठित कर लिया है।
आंखे होते हुए भी हम अंधे हो गये हैं। जैसे कैंचुली के आवरण में ठगा सांप अंधा हो जाता है, यही गति हमारी भी है। सम्प्रदायों और जातियों के आवरण में सीमित होकर हमने अपने संस्कारों को दूषित कर लिया है। हम खुले मन और हृदय की विशालता से कुछ ऊंचा नहीं सोच पाते। स्वयं को ही दूसरों से श्रेष्ठ समझने का भ्रम पाले हुए हैं।
अपनी संकीर्ण सोच के कारण दूसरे सम्प्रदाय और दूसरी जाति के व्यक्तियों से भेदभाव करने लगते हैं, उन्हें हेय समझने लगते हैं। इस आवरण को हटाना जरूरी है, यह हटेगा तो सभी अपने परिवार के लगने लगेंगे।