आधुनिक युग को अर्थ युग भी कहा जाता है। अर्थ से तात्पर्य धन और स्वार्थ दोनों से है। आदमी अर्थापार्जन करने के लिए दूसरों के हितों की अनदेखी कर अपना स्वार्थ पहले सिद्ध करने का प्रयास करता है। इस अर्थ युग में वह दूसरों की बलि लेने में भी संकोच नहीं करता, धन कमाने में अपने स्वास्थ्य की भी परवाह नहीं करता।
वह स्वास्थ्य खो देता है, ईमान छोड़ देता है, यहां तक कि पारिवारिक सम्बन्धों को भी ताक पर रख देता है। सगे-संबंधियों से दूरी बना लेता है, जो सर्वथा अनुचित है जो सच है वह यह है कि जो जैसा करेगा वैसा ही भरेगा। जैसा बोयेगा, वैसा ही काटेगा।
कर्मों का फल अकाट्य है, पूर्व के कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। पूर्व कर्मों के अनुसार जो धन उसे मिलना है वह तो मिलेगा ही यदि वह अपनी शारीरिक क्षमता के अनुसार पुरूषार्थ करता रहे। पुरूषार्थ के साथ ईमानदारी भी आवश्यक है।
प्रारब्ध से अधिक तो वह बेईमानी से भी नहीं कमा सकेगा। सत्पुरूषार्थ कर उसे अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी। जैसे कुएं में पानी तो अथाह है, परन्तु बाल्टी (पात्र) में पानी उतना ही आयेगा, जितनी उसकी क्षमता होगी। मुख्य बात यह है कि जिसमें जितनी पात्रता होगी उसे उतना ही मिलेगा और पात्रता उसके कर्म फल और पुरूषार्थ पर आधारित होती है।