सतपुरूषार्थ ही तप है, जो सत्पुरूषार्थ करते हैं वे तपस्वी संसार के दुखों से स्वतंत्र हो जाते हैं। ऐसे तपस्वी के पुरूषार्थ का मुख उल्टे मार्ग की ओर नहीं होता न ही उसकी सद्कामनाएं और मनोरथ असफल होते हैं। पुरूषार्थशीलता और तपरिचता से उसके विचार शुद्ध रहते हैं और उसमें दुष्टता की भावना भी कभी पैदा नहीं होती। वेद कहता है कि जो जागता है ऋचाऐं उसको चाहती हैं, मंत्र उसी की ओर चलते हैं। जो जागता है ईश्वर उसी का मित्र और सहायक बनता है। वेद पुरूषार्थ की उत्तम शिक्षा देता है। जागना अर्थात जागरूक रहना पुरूषार्थ और सोना आलस्य और प्रमाद का द्योतक है। वेद में वचन यह भी है ‘जो पुरूषार्थ करके अपने को थका नहीं लेते वे ईश्वर की दया के पात्र नहीं बनते। पुरूषार्थी को ही परमात्मा का संरक्षण प्राप्त होता है।