जीवन ऐसा है जैसे वृक्ष का पत्ता। लाल कौपंल फूटती है, हरियाली आती है, पत्तों पर यौवन आता है, किन्तु समय के पश्चात पत्ता पीला पड़ जाता है। वायु का एक झौंका पीले पत्ते को वृक्ष की टहनी पर से तोड़कर धूल में गिरा देता है। कितने ही पत्ते कौपंल अवस्था में और कितने ही यौवन अवस्था में ही टहनियों से झड़ जाते हैं, कितना अस्थिर है यह जीवन। जीवन ऐसा है जैसे कुशा (दूब घास) की नोंक पर अटका ओस बिन्दू। सूर्य की प्रथम किरण उसमें झिलमिलाती है, वह ओस बिन्दू मोती समान, किन्तु वायु का एक झोंका उसे धूल धूसरित कर देता है। कितना चंचल और अशाश्वत है यह जीवन। जीवन ऐसे है, जैसे सागर के वक्ष पर बलखाती, इठलाती लहरें, किनारे से टकराते ही लहरें ऐसे विलीन हो जाती हैं जैसे उनका कोई अस्तित्व था ही नहीं। कितनी ही लहरें पारस्परिक टकराव में ही किनारे पर पहुंचने से पूर्व ही खो जाती हैं। कितना अनिश्चित है यह जीवन? ऐसा सब कुछ तो हम प्रतिदिन स्वयं देख रहे हैं, परन्तु क्या कोई शिक्षा कोई नसीहत हम ले पा रहे हैं?