भूमि में डाला बीज समय आने पर पौधा बन जाता है, परन्तु बीज नष्ट हो जाता है। बीज के नष्ट होने पर ही पौधा बनता है। इसी प्रकार मनुष्य जब अपने अहंकार रूपी बीज का नाश कर देता है, तभी परमपिता का ज्ञान रूपी पौधा प्राणी के अन्दर उग पाता है और वह इसी ज्ञान के सहारे संसार सागर को पार कर प्रभु के चरणों में पहुंच जाता है, जो अहंकार का त्याग कर धर्म मार्ग पर चलने का प्रयास नहीं करता प्रभु उसका ही त्याग कर देते हैं। धर्म वह तत्व है, जो उन सभी गुणों को धारण करता है, जिनसे मनुष्य अहंकारादि विकारों से रहित होकर अपना स्वाभाविक विकास करता है और उस विकास से किसी दूसरे का विकास बाधित नहीं होता, बल्कि सबका कल्याण होता है। वह स्थिति अथवा विचार जो हमारे जीवन को सकारात्मक आधार प्रदान करे, प्राणी मात्र को प्यार करने का मार्ग दिखाये वही धर्म है। मनुष्य के मन में अच्छे विचार भी आते है और बुरे भी। इन विभिन्न विचारों के प्रभाव से हमारा स्वभाव अर्थात धर्म निर्मित होता है। विचार अच्छे होंगे, हमारा स्वभाव या धर्म अच्छा होगा। विचारों में यदि मलिनता है तो हमारा धर्म कभी अच्छा हो ही नहीं सकता। मलिन विचार तो अपना कल्याण करने में ही समर्थ नहीं होते औरों का कल्याण क्या करेंगे, जबकि धर्म सबके कल्याण की कामना करता है।