हमारा चरित्र ही हमारा वास्तविक धन है। सुख-दुख आदि व्याधि आते जाते रहते हैं। आत्मिक दृढ़ता तथा विश्वास चिरस्थायी रहने चाहिए। हमें धन सम्पत्ति की चिंता न करके, हम जिस स्थिति में आज जी रहे हैं, उसे ही सुखकारी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
जिस धन सम्पत्ति को जोडऩे में हम जीवन लगा देते हैं वह हमारे लिए अंत समय उपयोगी तथा सार्थक नहीं रहेगी न ही साथ जायेगी। सद्कर्म, परहित तथा सदाचरण ही सार्थक जीवन तथा परमानन्द प्राप्ति का मूल हैं। जीवन में हमें संतान, परिवार का समाज को दिये धन या सेवाओं के प्रतिफल प्राप्ति की आशा अथवा चिंता नहीं करनी चाहिए।
‘हमने स्वधर्म अनुसार सेवा की, अपना कर्तव्य निभाया मात्र ऐसे ही विचार मन में रखने चाहिए, क्योंकि देना ही आत्म सुख का आधार है। देना ही परमपिता परमात्मा एवं प्रकृति का नियम है। जीवन में यदि इस नियम को अपना ले तो हम स्वयं परमानन्द को प्राप्त हो जायेंगे।