बाहर जितना बड़ा ब्रह्मांड है उतना ही बड़ा किन्तु सूक्ष्म रूप में भीतर का ब्रह्मांड है। हम मध्य में खड़े हैं। बाहर की यात्रा करेंगे तो कुछ मिलने वाला नहीं, कहीं पहुंचेंगे भी नहीं। वह केवल यात्रा ही रह जायेगी। कुछ भौतिक उपलब्धियां तो हो सकती हैं, परन्तु आध्यात्मिक शान्ति से वंचित ही रहेंगे। मंजिल बाहर नहीं भीतर है। हम सुख की तलाश में भटक रहे हैं, जबकि प्रयास हमें करने चाहिए आनन्द की प्राप्ति के लिए। सुख का सम्बन्ध इन्द्रियों से हैं, जबकि आनन्द आत्मा का विषय है। वस्तुत: हम देह नहीं हम तो शुद्ध चेतन स्वरूप है, अविनाशी आत्मा है। यह देह तो वस्त्र की भांति है। इस देह से चिपके रहोगे तो अपने स्वरूप को कैसे पहचानेंगे। बाहर की परतें छूटेगी, तभी तो भीतर के केन्द्र पर स्थित हो पायेंगे। तुम न भगवान को भूलना न संसार के व्यवहार को भूलना। संसार में आये हो तो तुम्हारे कुछ उत्तरदायित्व भी कुछ ऋण भी हैं। न उत्तरदायित्वों को भूलना है न ऋणों की अदायगी की उपेक्षा करनी है। कमल की भांति जियो। कमल की जड़ नीचे जल में हैं, परन्तु वास ऊंचाई पर है। तुम संसार के व्यवहार में तो रहना, परन्तु ध्यान ऊपर (प्रभु में) लगाये रखना कमल बनकर जीओगे तो शोभायमान रहोगे।