व्यक्ति की जब सुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति में पर्याप्त समय तक निरन्तरता बनी रहती है तो उसमें अहंकार आ जाता है और वह उसी में जीने लगता है। अहंकारी मनुष्य परमात्मा से दूर होता चला जाता है। वह उस ऐश्वर्य को अपनी बुद्धि और पुरूषार्थ की उपलब्धि मानता है इसी कारण परमात्मा के प्रति वह कृतज्ञता भी प्रकट नहीं करता। अहंकारी को तो सामान्य आदमी भी पसन्द नहीं करता फिर भगवान अहंकारी को पसंद कैसे करेंगे। भाव यही है कि अहंकारी व्यक्ति बिल्कुल भी प्रिय नहीं। पूर्व के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप यदि जीवन में सुख साधन प्राप्त होते हैं तो उनका सदुपयोग करें और समाज के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करते हुए त्यागपूर्वक उनका उपभोग करें। भगवान का सदा ही धन्यवाद करते रहे ताकि उसकी याद में प्रबलता बनी रहे। जो व्यक्ति सुख के दिनों में भगवान को याद रखता है उसके उपकारों के प्रति कृतज्ञ भाव रखता है उसका धन्यवाद करता रहता है उसे दुखों का सामना करना ही नहीं पड़ता। किसी कवि ने सही कहा है कि दुख में सब सुमरण करे सुख में करे न कोय, जो सुख में सुमरण करे तो दुख काहे का होय।