कभी-कभी व्यक्ति इसलिए दुखी हो जाता है कि मैंने अमुक-अमुक व्यक्ति के साथ कितने उपकार किये, किन्तु वे मेरा प्रत्युपकार नहीं करते। वस्तुत: यह दुख मात्र प्रत्युपकार न करने का नहीं, किन्तु अपने कर्तापन के अभिमान का भी है। यदि अपना कर्तव्य समझकर उपकार करते तो प्रत्युपकार न मिलने से मन में पीडा न होती। अपने द्वारा किये गये उपकार पर पश्चाताप न होता। प्रत्युपकार की इच्छा से नहीं अपितु अपने ऊपर चढे हुए समाज के ऋण को उतारने की भावना से ही उपकार के कार्य करे। इसी प्रकार लोग अयोग्य पुत्र की निंदा करते हैं कि वह मेरी आज्ञा नहीं मानता, मेरा उचित सम्मान नहीं करता, मुझे प्रणाम नहीं करता। इसलिए कि पुत्र को पाला, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, रोजगार आरम्भ कराया, विवाह किया, उसके सुखद भविष्य के लिए थोड़ी बहुत सम्पत्ति बनाई, अपनी इच्छाओं को दबाकर उसकी इच्छाएं पूरी करने का प्रयास किया, किन्तु भाई या पडौसी के उस पुत्र की निंदा आप कभी नहीं करते, जिसके प्रति आपने उपकार नहीं किये। स्मरण रहे कि दुख अपेक्षा रखने में होता है। कर्तव्य भावना से किये गये कार्यों में अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए।