वेद का ऋषि कहता है ‘शत हस्त समाहर सहस्र हस्त संकिर’ अर्थात सौ हाथ से कमाओ और हजार हाथों से दान करे। हाथ तो दो ही होते हैं, परन्तु कहने का अभिप्राय यह है कि पुरूषार्थ और र्हमानदारी से खूब कमाये, परन्तु उसे प्रभु की अमानत मानकर अभावग्रस्तों की सेवा सहायता भी खूब करें। अभिप्राय यह भी नहीं कि भौतिक सुख सुविधाओं का बिल्कुल त्याग कर दें। संसार में रहोगे तो जीवन निर्वाह के लिए सामाजिक, धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करने के लिए धन भी कमाना होगा और सुख सुविधाओं का उपभोग भी करना होगा, परन्तु यह बात हृदय में दृढ़तापूर्वक बैठा लें कि सब सुख साधन जीवन निर्वाह के लिए है, इनमें सच्चा सुख कदापि नहीं। सुख तो तब मिलेगा, जब आप भोजन करे तो यह सुनिश्चित कर ले कि आपके पास कोई भूखा तो नहीं। सुख प्रभु की भक्ति में मिलेगा और प्रभु की भक्ति यह है कि उसके बंदों की आप अपने सामर्थ्य के अनुसार पीड़ा तथा दुखों का निवारण करे। इस भक्ति को अपनाओं और अपना लोक-परलोक सुखी कर लो अन्यथा सब कुछ पा लेने के पश्चात भी आप सुख का अनुभव कर ही नहीं पायेंगे।