यह तो सभी आस्तिक मानते हैं कि परमात्मा निराकार है, फिर भी अधिकांश लोग साकार रूप में प्रभु की आराधना करते हैं, क्योंकि निराकार में आरम्भ में मन को स्थिर स्थापन करना कुछ कठिन हो जाता है, इसलिए मन को स्थिर करने के लिए अधिकांश को किसी प्रकार का आश्रय लेना पड़ता है, भले ही वह ॐ के चित्र के रूप में, जलते दीपक की लौ हो या सूर्योदय पूर्व की क्षितिज पर आई लालिमा की हो, फिर भी इसका यह अभिप्राय: कदापि नहीं कि निराकार में मन की स्थिरता असम्भव है। ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता। यह तो अपनी-अपनी मानसिक क्षमता पर निर्भर है।
कुछ साधक ऐसे भी होते हैं, जो साधना के आरम्भ से ही निराकार में ध्यान करके सराहनीय एवं अनुकरणीय सफलताएं अर्जित कर लेते हैं। कोई किस प्रकार मन को स्थिर करने का उपक्रम करता है, इस पर कोई विवाद नहीं होना चाहिए, परन्तु कुछ व्यक्ति मन की स्थिरता के लिए मूर्तियों का सहारा लेते हैं और जीवन पर्यन्त उसी को साधना मान लेते हैं, जबकि मूर्ति मात्र मन को साधने का एक साधन है और हम उसे साध्य मान लेते हैं।
आपको नदी पार करना है, पुल नहीं है तो नाव का सहारा लेते हैं। नदी पार हो गई और आप नाव को सिर पर ढोने लगे तो यह तो बुद्धिमानी नहीं कही जायेगी।
आपने साकार से मन को स्थिर करने का आधार बना लिया, परन्तु उसे ही यदि साध्य मान बैठे तो आत्म साक्षात्कार करने से वंचित रह जाओगे।