आध्यात्म रामायण की सीख है कि संसार की स्थिति स्वप्र तुल्य है। शरीर रोगादि से भरा हुआ है। इस संसार के झूठे प्रपंचों को मूढ लोग सच्चा मान बैठे हैं। मृत्यु के विशेष दिन और विशेष रात्रि को मूढ व्यक्ति भूला रहा है।
भोगो की भ्रांति में पड़ा हुआ प्राणी ऊपर आते हुए काल के वेग को नहीं देखता है। कच्चे घड़े में स्थित जल निकलने के समान आयु क्षण-क्षण घटती जा रही है। शत्रु समूह के सदृश शरीर पर रोगों का प्रहार होता रहता है। वृद्धावस्था बाघिनी सधिर रही है। मृत्यु निकट खड़ी प्रहार करने के समय की प्रतिष्ठा कर रही है फिर भी हम कुचेष्टाओं में फंसे हुए हैं।
कुकर्मों से बाज नहीं आते। अपना परलोक भी बिगाड़ रहे हैं। न कोई सुख का दाता है और न कोई दुख का। दूसरों से सुख-दुख मिलता है, यह हमारा भ्रम है। मैं करता हूं यह भी झूठा अभिमान है। अपने जन्म-जन्मान्त्रों के लिए कर्मों का ही तो हम भोग कर रहे हैं।