मानो तो देव नहीं तो पत्थर। मूर्ति तो एक प्रतीक मात्र है। विश्वास तो मन से करना पड़ता है। जिसमें श्रद्धा नहीं उसके लिए मंदिर की मूर्ति का क्या महत्व है। विश्वास से मन शुद्ध और स्वस्थ होता है। कुविचार दूर होते हैं। साधक का मन भक्ति में रम जाता है। भक्ति तो श्रद्धा और विश्वास का मिश्रण है। यही दोनों मन की चंचलता समाप्त कर उसे स्थिरता प्रदान क रते हैं। भक्ति की पूर्णता का सही अर्थ है निश्छल, पवित्र तथा अमृतमय प्रेम। जड़ से प्रेम, चेतना से प्रेम, बस प्रेम ही प्रेम। ऐसे दिव्य प्रेम में जब पूर्ण समर्पण का योग हो जाता है, तभी सच्चा भक्ति योग जागृत होता है। सभी जीवों में दिव्यता का अंश है, उसी दिव्यता को बस जगाना भर ही भक्ति है। अपने सत्य को जानना और उसे स्वीकार करना भक्ति की पहली सीढी है, जो केवल ध्यान द्वारा ही सम्भव है। कहां-कहां कब प्रकृति के नियमों से चूके। यह ध्यान कर लेने पर प्रकृति हमारा मार्गदर्शन करती है, सही मार्ग पर जाने की प्रेरणा देती है। यही तो होती है प्रभु की कृपा। सच्ची भक्ति करनी है तो दो चीजें हमेशा ध्यान रखो, एक उस परमात्मा को जो इस संसार का रचियता है, पालक, सबसे बड़ा न्यायाधीश है, जो हमारे कर्मों के अनुसार दण्ड अथवा पुरस्कार देता है। दूसरे मृत्यु को जो सबके सिर पर मंडराती है। जो इन्हें सदैव याद रखता है वह सत्यपथ का अनुगामी हो जाता है।