Tuesday, February 25, 2025

लिव-इन रिलेशनशिप को  मान्यता कितनी जायज़ ?

लिव-इन रिलेशनशिप के मुश्किल से 10 प्रतिशत मामले ही शादी तक पहुँच पाते हैं। बाक़ी 90 प्रतिशत मामलों में रिश्ते टूट ही जाते हैं। ठीक उसी तरह, जिस तरह आजकल के नवयुवक प्रेमी-प्रेमिकाएँ जितनी तेजी से प्रोपोज़ करते हैं उतनी ही तेज़ी से ब्रेकअप और फिर उतनी ही तेज़ी से प्रेमी भी बदल लेते हैं। ऐसे प्रेमी-प्रेमिकाओं को लिव-इन रिलेशनशिप जैसी लुभावनी प्रथा सही लगती है।
क्योंकि उन्हें एक दूसरे के साथ बिना शादी के पति-पत्नी जैसा रहने का मौक़ा मिल जाता है और पति-पत्नी जैसे रिश्ते का अर्थ आप अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिए रिश्ता टूटने के बाद सबसे ज़्यादा जीवन बर्बाद लड़कियों का होता है। विशेषकर विवाह के समान भरण-पोषण और उत्तराधिकार के अधिकार प्रदान करना। सहवास में जन्मे बच्चों की कानूनी स्थिति को स्पष्ट करना, विशेष रूप से वैधता और उत्तराधिकार अधिकारों के सम्बंध में। रिश्ता टूटने के बाद अक्सर लड़कियाँ आत्महत्या जैसे क़दम उठा लिया करती हैं।
वैश्वीकरण के प्रभाव और पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने के कारण अब लिव-इन रिलेशनशिप को अधिक स्वीकार्य माना जाने लगा है। यह सहवास के नैतिक परिणामों तथा विवाह और परिवार के पारंपरिक विचारों पर प्रश्न उठाता है। भारतीय युवाओं की जीवन शैली में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। इसके लिए ये आधुनिक संस्कृति को अपनाने में कोई भी झिझक महसूस नहीं करते और लिव इन रिलेशनशिप आधुनिक संस्कृति की ही एक शैली है।
आजकल के युवा लिव इन रिलेशनशिप को वैवाहिक जीवन से बेहतर मानने लगे हैं। आज की पीढ़ी शादी और लिव इन रिलेशनशिप को एक जैसा ही मानती है। इनका मानना है कि शादी में समाज और क़ानून का हस्तक्षेप होता है किन्तु लिव इन रिलेशनशिप में ऐसा कुछ भी नहीं होता है। बल्कि पूरी आज़ादी होती है। लेकिन शादी और लिव इन रिलेशनशिप में अंतर है। ये प्रथा जितनी आसान लगती है उतनी ही पेचीदा है। जितने इसके फ़ायदे हैं उससे कहीं ज़्यादा नुक़सान हैं।
इस तरह के सम्बंध प्रायः पश्चिमी देशों में बहुतायत में देखने मिलते हैं। क्योंकि वहाँ की संस्कृति इस प्रथा को सहज ही स्वीकार करती है। वहाँ की लाइफ़स्टाइल भी कुछ इसी तरह की है। भारत में भी कुछ वर्षों से इस व्यवस्था को सपोर्ट मिला है। जिसके पीछे महानगरों में बसने वाले कुछ लोगों के बदलते सामाजिक विचार, विवाह की समस्या और धर्म से जुड़े मामलों का होना माना जा सकता है। समाज का एक वर्ग इसे भारतीय संस्कृति के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानता है। तो वहीँ दूसरा वर्ग इसे आधुनिक परंपरा में बदलाव के रूप में देखते हुए स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए वरदान मानता है। हर चीज़ के अपने-अपने फायदे और नुक़सान होते हैं।
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हाल ही में अधिनियमित उत्तराखंड समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ने लिव-इन पार्टनरशिप के लिए व्यापक विनियमों की एक शृंखला स्थापित की, जिसका लक्ष्य उन्हें विनियमित करना और उनकी कानूनी मान्यता की गारंटी देना है। लेकिन इनसे काफ़ी चर्चा भी हुई है और सरकारी निगरानी तथा गोपनीयता को लेकर चिंताएँ भी पैदा हुई हैं। पिछले 20 वर्षों में, लिव-इन रिलेशनशिप-जिसमें जोड़े बिना शादी किए एक साथ रहते हैं-भारतीय समाज और कानून में अधिक स्वीकार्य हो गए हैं। अतीत में भारतीय समाज पारंपरिक मूल्यों पर आधारित था और प्रतिबद्ध रिश्ते का एकमात्र स्वीकृत रूप विवाह था। लिव-इन पार्टनरशिप को अक्सर कलंकित माना जाता था तथा समाज द्वारा इसे नकारात्मक दृष्टि से देखा जाता था।
हालाँकि, वैश्वीकरण के प्रभाव और पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आने के कारण अब लिव-इन रिलेशनशिप को अधिक स्वीकार्य माना जाने लगा है। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद एस. ख़ुशबू बनाम) का उपयोग करते हुए, भारतीय अदालतों ने कई फैसलों में लिव-इन रिश्तों को मान्यता दी है। कन्नियाम्मल (2010) के अनुसार, लिव-इन पार्टनरशिप व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत आती है। सरमा, इंद्र वि। 3. के. वी. । सरमा (2012) : इसने घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 (पीडब्ल्यूडीवीए) के तहत विवाह जैसे दिखने वाले लिव-इन रिश्तों को मान्यता दी और उन्हें विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने रेखांकित किया है कि साथी चुनने और घनिष्ठ सम्बंध स्थापित करने की स्वतंत्रता संविधान के मुक्त भाषण और अभिव्यक्ति पर अनुच्छेद 19 (सी) के अंतर्गत आती है।
घरेलू हिंसा के विरुद्ध संरक्षण अधिनियम, 2005 (पीडब्ल्यूडीवीए) अपने दायरे में “विवाह की प्रकृति वाले सम्बंधों” को शामिल करके, लिव-इन सम्बंधों में घरेलू हिंसा का सामना करने वाली महिलाओं को संरक्षण प्रदान करता है। डी. वेलुसामी बनाम के सम्बंध में। न्यायालय ने डी. पचैअम्मल (2010) में फ़ैसला सुनाया कि केवल विवाह जैसे रिश्ते ही घरेलू हिंसा कानूनों के तहत कानूनी संरक्षण के लिए योग्य होंगे।
—डॉ. सत्यवान सौरभ
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