कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी मनुष्यों की यह इच्छा रहती है कि जीवन में उन्हें सुख ही सुख प्राप्त हो, दुख की छाया उनके जीवन पर कभी पड़े ही नहीं। यदि उन्हें दुख और कष्ट मिलते हैं तो उन्हें प्रभु की इच्छा मानकर सह लेते हैं, किन्तु कुछ ऐसे मनुष्य भी देखने में आते हैं जो कष्टों को ही प्रभु की कृपा मानते हैं। जब मनुष्य ज्ञान, भक्ति और वैराग्य की ओर अग्रसर होता है, तो भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। वह प्रत्येक क्षण प्रभु की याद में ही लीन रहता है। वह सांसारिक पदार्थों की अपेक्षा भी नहीं करता और यदि वे स्वभावत: उसे प्राप्त हो जाये तो उन्हें प्रभु की कृपा भी नहीं मानता। वास्तव में वह उन पदार्थों में आसक्ति का भाव रखता ही नहीं, जिन्हें हम सुख का कारक मानते हैं। वह तो कष्टों को ही प्रभु की कृपा और वरदान मानता है, क्योंकि कष्टों के समय प्रभु की याद और बढ जाती है। वह यह मानता है कि इस जन्म अथवा पूर्व के जन्मों में हमसे जो पाप कर्म हो गये हैं वे सुखों का भोग करके तो कटेंगे नहीं न ही दंड मिले बिना उनसे छुटकारा होगा और हम ऐसे ही नाना योनियों में भ्रमण करते रहेंगे। मुक्ति एक दिवा स्वप्र बन कर रह जायेगी।