वासना रहित मन सूखी दियासलाई के समान है, जिसे एक बार घिसने पर भी अग्रि पैदा हो जाती है। मनोरथों तथा वासनाओं में लिप्त मन गीली दियासलाई है, जिसे बार-बार घिसने पर भी चिंगारी तक पैदा नहीं होती।
इसलिए मन को वासनाओं से रहित बनाओ, उनके लिए मन में वैराग्य पैदा होना चाहिए, परन्तु मनुष्य में ऐसे संस्कार पैदा हो उसके लिए बचपन और युवावस्था ही सर्वोत्तम है। इसलिए मां-बाप स्वयं संस्कारित हों और अपनी संतानों में बचपन में ही सुसंस्कारों का बीजारोपण करें, सुसंस्कारित गृहस्थी ही संतानों में सुसंस्कार डाल सकते हैं।
प्रौढता और वृद्धावस्था में जड़ता जकड़ लेती है। स्वभाव को बदलना असम्भव हो जाता है। उस अवस्था में इन्द्रियों की शिथिलता तथा असमर्थता के कारण पैदा हुआ वैराग्य तो मात्र दिखावा ही बनकर रह जायेगा।