जब व्यक्ति किसी को नीचा दिखाने के लिए कर्म करता है, अहंकार की तुष्टि के लिए कर्म करता है, वासनाओं की पूर्ति के लिए कर्म करता है, तो हमारे ये कर्म बंधन रूप हो जाते हैं। परन्तु प्रभु प्राप्ति के लिए, आत्म आनन्द के लिए, आत्म प्रकाश जगाने के लिए, सच्चे सुख की प्राप्ति के लिए अगर कर्म किये जाते हैं, तो हमारे ये कर्म दिव्यता में परिणित हो जाते हैं। अत: जीव को सदा श्रेष्ठ कर्म ही करने चाहिए, जिससे प्रभु का तेज हमारे भीतर प्रकाशित होता रहे।
जो जिसका चिंतन करता है, उसके गुण धीरे-धीरे उसमें आने आरम्भ हो जाते हैं। ईश्वर के गुण जीव में छुपे हुए हैं, परन्तु वासनामय चिंतन के कारण जो परते चढ़ गई हैं, उन्हें हटाने के लिए सार्थक चिंतन आवश्यक होता है। सार्थक चिंतन होगा तो भटकाव स्वत: ही समाप्त हो जायेगा, सही मार्ग स्वयं सूझेगा। उसके लिए छटपटाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
मन से, वाणी से और कर्म से शुभ और केवल शुभ ही करें, श्रेष्ठ करें। ऐसे में अशुभ को स्थान ही नहीं मिल पायेगा। प्रभु का प्यार भी मिलेगा और उसकी कृपाओं की वर्षा भी होती रहेगी।