इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष सदी से भी पुरानी है और इसी तरह के सशस्त्र समाधान के पहले भी प्रयास हो चुके हैं। इसलिये इसका समाधान गांधी दर्शन के आधार पर ही हो सकता है। हालांकि गांधी जी ‘हरिजन के 26 नवम्बर 1938 के अंक में यहूदियों के प्रति अपनी सहानुभूति जताने के साथ ही फिलिस्तीन में यहूदियों को बसाने को अन्यायपूर्ण बता चुके थे। गांधी जी ने अपने लेख में लिखा था कि जिस तरह इंग्लैण्ड अंग्रेजों का है, फ्रांस फ्रेंच लोगों का है उसी तरह फिलिस्तीन अरब के लोगों का है।
गांधी जी ने यहूदियों के प्रति सहानुभूति जताते हुये लिखा था कि जिस तरह हिन्दुओं में हरिजनों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता है उसी तरह यहूदी ईसाई धर्म के अछूत ही हैं जिनके साथ धर्म के आधार पर भेदभाव और अत्याचार होते रहे हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि उन्हें अरब लोगों पर थोप दिया जाय।
इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष एक लंबे समय से चला आ रहा और जटिल भू-राजनीतिक विवाद है जिसकी जड़ें ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनीतिक और क्षेत्रीय कारकों से जुड़ी हुयी हैं। इजरायली (यहूदी) और फिलिस्तीनी (अरब) दोनों का फिलिस्तीन क्षेत्र से ऐतिहासिक संबंध है। यह क्षेत्र सदियों से लेकर प्रथम विश्व युद्ध के बाद इसके पतन तक ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्र संघ ने ब्रिटेन को फिलिस्तीन पर शासन करने का अधिकार दिया और उसी के बाद यहां यहूदी आप्रवासन में वृद्धि हुई।
यहां 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में जायोनी आंदोलन (जियानिस्ट) का उदय हुआ जिसका उद्देश्य फिलिस्तीन में एक यहूदी मातृभूमि की स्थापना करना था। इसी की प्रतिक्रिया स्वरूप क्षेत्र में अरब आबादी के बीच अरब राष्ट्रवाद मुखर होता गया।
दरअसल विवाद की असली शुरुआत फिलिस्तीन क्षेत्र पर अधिकार मिलने के बाद 2 नवंबर, 1917 को ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश सचिव आर्थर बालफोर द्वारा ब्रिटिश यहूदी समुदाय के प्रमुख लियोनेल वाल्टर रोथ्सचाइल्ड को संबोधित एक पत्र से हुयी जिसमें फिलिस्तीन में यहूदियों के लिये ‘होमलैंड की स्थापना के लिये ब्रिटिश सरकार की प्रतिबद्धता व्यक्त की गयी थी। दरअसल यह जायोनी आंदोलन (यहूदियों) को एक ऐसा देश देने का वादा था, जहाँ फिलिस्तीनी अरब मूल की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी थी।
यह क्षेत्र 1923 से लेकर 1948 तक ब्रिटिश हुकूमत के अधीन रहा। उस अवधि के दौरान, अंग्रेजों ने बड़े पैमाने पर यहूदी आप्रवासन की सुविधा दी। जो यहूदी यूरोप में नाजीवाद के अत्याचारों से भाग रहे थे, उन्हें यहां बसाया गया। फिलिस्तीनी अपने देश की बदलती जनसांख्यिकी और ब्रिटेन द्वारा उनकी भूमि को यहूदी बाशिंदों को सौंपे जाने से जब्त होने से चिंतित थे।
क्षेत्र में बढ़ती यहूदी आबादी के फलस्वरूप बढ़ते तनाव के कारण अंतत: अरब विद्रोह हुआ जो 1936 से 1939 तक चला। अप्रैल 1936 में नवगठित अरब राष्ट्रीय समिति ने फिलिस्तीनियों से ब्रिटिश उपनिवेशवाद और बढ़ते यहूदी आप्रवासन के विरोध में एक आम हड़ताल शुरू करने, कर भुगतान रोकने और यहूदी उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान किया। इस छह महीने की हड़ताल को अंग्रेजी हुकूमत ने बेरहमी से दबा दिया।
विद्रोह का दूसरा चरण 1937 के अंत में शुरू हुआ और इसका नेतृत्व फिलिस्तीनी किसान प्रतिरोध आंदोलन ने किया जिसने ब्रिटिश सेनाओं और उपनिवेशवाद को निशाना बनाया। 1939 की दूसरी छमाही तक ब्रिटेन ने फिलिस्तीन में 30,000 सैनिक तैनात कर लिए थे। इसी कड़ी में अंग्रेजों ने वहां बसने वाले यहूदी समुदाय के साथ सहयोग किया और सशस्त्र समूहों और ब्रिटिश नेतृत्व वाले यहूदी लड़ाकों के ‘आतंकवाद विरोधी बल का गठन किया, जिसे स्पेशल नाइट स्क्वाड नाम दिया गया।
एक अनुमान के अनुसार 1947 तक यहूदी आबादी फिलिस्तीन में 33 प्रतिशत हो गई थी, लेकिन उनके पास केवल 6 प्रतिशत भूमि थी। संयुक्त राष्ट्र ने अपने संकल्प 181 को अपनाया, जिसमें फिलिस्तीन को अरब और यहूदी राज्यों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया। फिलिस्तीनियों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इसमें फिलिस्तीन का लगभग 56 प्रतिशत हिस्सा यहूदी राज्य को आवंटित किया गया था, जिसमें अधिकांश उपजाऊ तटीय क्षेत्र भी शामिल था। उस समय फिलिस्तीनियों के पास ऐतिहासिक फिलिस्तीन भूभाग का 94 प्रतिशत हिस्सा था और इसमें 67 प्रतिशत आबादी शामिल थी।
एक अनुमान के अनुसार 1947 तक यहूदी आबादी फिलिस्तीन में 33 प्रतिशत हो गई थी, लेकिन उनके पास केवल 6 प्रतिशत भूमि थी। संयुक्त राष्ट्र ने अपने संकल्प 181 को अपनाया, जिसमें फिलिस्तीन को अरब और यहूदी राज्यों में विभाजित करने का निर्णय लिया गया। फिलिस्तीनियों ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इसमें फिलिस्तीन का लगभग 56 प्रतिशत हिस्सा यहूदी राज्य को आवंटित किया गया था, जिसमें अधिकांश उपजाऊ तटीय क्षेत्र भी शामिल था। उस समय फिलिस्तीनियों के पास ऐतिहासिक फिलिस्तीन भूभाग का 94 प्रतिशत हिस्सा था और इसमें 67 प्रतिशत आबादी शामिल थी।
14 मई, 1948 को ब्रिटिश शासन समाप्त होने से पहले ही इज्राइली अर्धसैनिक बल ने पहले से ही नये जायोनी (जियोनिस्ट) राज्य की सीमाओं का विस्तार करने का अभियान शुरू कर दिया था। इस अभियान के तहत जायोनी आंदोलन ने ऐतिहासिक फिलिस्तीन के 78 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लिया। शेष 22 प्रतिशत को अब कब्जे वाले वेस्ट बैंक और घिरे गाजा पट्टी में विभाजित किया गया था।
15 मई 1948 को इजराइल ने अपनी स्थापना की घोषणा कर दी। अगले दिन पहला अरब-इजरायल युद्ध शुरू हुआ और जनवरी 1949 में इजराइल और मिस्र, लेबनान, जॉर्डन और सीरिया के बीच युद्धविराम के बाद लड़ाई समाप्त हो गई। दिसंबर 1948 में, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रस्ताव 194 पारित किया, जो फिलिस्तीनी शरणार्थियों के लिए वापसी के अधिकार की मांग करता है। कम से कम 150,000 फिलिस्तीनी नवनिर्मित इजराइल राज्य में रहे और अंतत: उन्हें इजराइली नागरिकता प्रदान करने से पहले लगभग 20 वर्षों तक कड़े नियंत्रण वाले सैन्य कब्जे में रहे।
1964 में फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) का गठन किया गया था और एक साल बाद, फतह राजनीतिक दल की स्थापना की गई थी। 5 जून, 1967 को, अरब सेनाओं के गठबंधन के खिलाफ छह दिवसीय युद्ध के दौरान इजराइल ने गाजा पट्टी, वेस्ट बैंक, पूर्वी येरुशलम, सीरियाई गोलान हाइट्स और मिस्र के सिनाई प्रायद्वीप सहित ऐतिहासिक फिलिस्तीन के बाकी हिस्सों पर कब्जा कर लिया। दिसंबर 1967 में फिलिस्तीन की मुक्ति के लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी पॉपुलर फ्रंट का गठन किया गया था।
पहला फिलिस्तीनी इंतिफादा (विद्रोह) दिसंबर 1987 में गाजा पट्टी में तब भड़का जब एक इजरायली ट्रक और फिलिस्तीनी श्रमिकों को ले जा रही दो वैनों की टक्कर में चार फिलिस्तीनी मारे गए थे। प्रतिकृया स्वरूप युवा फिलिस्तीनियों द्वारा इजरायली सेना के टैंकों और सैनिकों पर पथराव के साथ विरोध प्रदर्शन तेजी से वेस्ट बैंक में फैल गया। इससे हमास आंदोलन की स्थापना भी हुई, जो मुस्लिम ब्रदरहुड की एक शाखा थी, जो इजरायली कब्जे के खिलाफ सशस्त्र प्रतिरोध में लगी हुई थी।
1988 में, अरब लीग ने पीएलओ को फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी।
इंतिफादा के फलस्वरूप 1993 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर करने और फिलिस्तीनी प्राधिकरण (पीए) के गठन के साथ समाप्त हुआ। इसमें कब्जे वाले वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के इलाकों में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वशासन प्रदान किया गया था।
इंतिफादा के फलस्वरूप 1993 में ओस्लो समझौते पर हस्ताक्षर करने और फिलिस्तीनी प्राधिकरण (पीए) के गठन के साथ समाप्त हुआ। इसमें कब्जे वाले वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी के इलाकों में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वशासन प्रदान किया गया था।
समझौते में पीएलओ ने दो राज्य समाधान के आधार पर इजराइल को मान्यता दी और प्रभावी ढंग से हस्ताक्षरित समझौतों पर इजराइल को वेस्ट बैंक के 60 प्रतिशत और क्षेत्र के अधिकांश भूमि और जल संसाधनों पर नियंत्रण दिया। पीए को पूर्वी येरुशलम में अपनी राजधानी के साथ वेस्ट बैंक और गाजा पट्टी में एक स्वतंत्र राज्य चलाने वाली पहली निर्वाचित फिलिस्तीनी सरकार के लिए रास्ता बनाना था, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। 1995 में, इजराइल ने गाजा पट्टी के चारों ओर एक इलेक्ट्रॉनिक बाड़ और कंक्रीट की दीवार बनाई, जिससे विभाजित फिलिस्तीनी क्षेत्रों के बीच बातचीत बाधित हो गई।
दूसरा इंतिफादा 28 सितंबर, 2000 को शुरू हुआ, जब लिकुड के विपक्षी नेता एरियल शेरोन ने यरूशलेम के पुराने शहर और उसके आसपास हजारों सुरक्षा बलों को तैनात करते हुए अल-अक्सा मस्जिद परिसर का दौरा किया। फिलिस्तीनी प्रदर्शनकारियों और इजरायली बलों के बीच दो दिनों में हुई झड़पों में पाँच फिलिस्तीनी मारे गए और 200 घायल हो गए। इस घटना ने व्यापक सशस्त्र विद्रोह को जन्म दिया।
पीएलओ नेता यासिर अराफात की 2004 में मृत्यु के एक साल बाद दूसरा इंतिफादा समाप्त हो गया। गाजा पट्टी में इजरायली बस्तियों को नष्ट कर दिया गया और इजरायली सैनिकों और 9,000 निवासियों ने एन्क्लेव छोड़ दिया। इसके एक साल बाद फिलिस्तीनियों ने पहली बार आम चुनाव में मतदान किया।
इसमें हमास ने बहुमत हासिल किया। हालाँकि इसके बाद फतह और हमास में गृह युद्ध छिड़ गया, जो महीनों तक चला, जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों फिलिस्तीनियों की मौत हो गई। हमास ने फतह को गाजा पट्टी से निष्कासित कर दिया और फतह जो फिलिस्तीनी प्राधिकरण की मुख्य पार्टी थी, ने वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों पर नियंत्रण फिर से शुरू कर दिया। जून 2007 में इजराइल ने हमास पर ‘आतंकवाद का आरोप लगाते हुए गाजा पट्टी पर भूमि, वायु और नौसैनिक नाकाबंदी लगा दी।
इजरायल और फिलिस्तीन नामक दोनों देशों के मध्य वर्ष 2021 में फिर से हिंसक विवाद तब आरंभ हो गया था, जब इजरायल के सैनिकों ने पूर्वी यरुशलम के ”हराम अल शरीफ नामक जगह पर स्थित ‘अल अक्सा मस्जिद पर हमला कर दिया था। अल अक्सा मस्जिद मुसलमानों के लिए मक्का और मदीना के बाद विश्व में तीसरा सबसे पवित्र स्थान माना जाता है।
-जयसिंह रावत
-जयसिंह रावत