हिन्दी पत्रकारिता एवं साहित्य की साधारण समझ रखने वाला भी माखनलाल चतुर्वेदी को जानता ही होगा। मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई में 4 अप्रैल 1889 को जन्मे माखनलाल जी चतुर्वेदी की सम्पूर्ण जीवनयात्रा रचना एवं संघर्ष को समर्पित यात्रा रही है। उन्हें, कवि, पत्रकार, क्रांतिकारी हर रूपों में जानकर भी उनके व्यक्तित्व का आंकलन सहज नहीं है। वस्तुत: वे एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रहे थे और कोई मोर्चा ऐसा न था जहां उन्होंने अपनी पृथक पहचान न बनाई हो।
माखनलाल जी ने जब पत्रकारिता शुरू की तो सारे देश में राष्ट्रीय आंदोलन की लहर चल रही थी। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद की चर्चाएं और फिरंगियों को देश बदर करने की भावनाएं ही वातावरण में घुमड़ रही थीं। इसी के साथ 1915-16 में महात्मा गांधी जैसी तेजस्वी विभूति के अवतरण ने सारे राष्ट्रीय आन्दोलन की धार को और पैना किया। दादा भी गांधी भक्तों की उस टोली के अगुआ बन गए। गांधी के जीवन दर्शन से अनुप्राणित होकर दादा ने पूरी सक्रियता के साथ राष्ट्रीय आन्दोलन को ऊर्जा एवं गति दी। इस दौर की पत्रकारिता भी कमोबेश गांधी के जीवन दर्शन एवं संदेशों से ही प्रभावित थी। सच कहें तो हिन्दी पत्रकारिता का वह जमाना ही विचित्र था।
आम कहावत थी- जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। और सच कहें तो अखबार की ताकत का अहसास स्वतंत्रता के दीवानों को हो गया था। सारे देश में आन्दोलन से जुड़े लोगों ने अखबारों के माध्यम से जैसी जनचेतना जागृत की, वह महत्व की है। अखबार के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल के इस दौर में दादा का कर्मवीर एक प्रमुख नाम बन गया।
हालांकि इस दौर में राजनीतिक एवं सामाजिक पत्रकारिता के साथ साहित्यिक पत्रकारिता का दौर भी समानांतर चल रहा था। सरस्वती एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी उसके प्रतिनिधि के रूप में उभरे थे। माखनलाल जी ने 1993 में प्रभा के माध्यम से इस क्षेत्र में भी सार्थक हस्तक्षेप किया। अपनी साहित्यिक पत्रिका प्रभा के माध्यम से उन्होंने हिन्दी जगत के कई नए साहित्यकारों को प्रोत्साहित किया।
लोगों को झकझोरने एवं जगाने वाली रचनाओं के प्रकाशन एवं प्रस्तुति से प्रभा ने जल्द ही साहित्यिक जगत में अपनी विशिष्ट जगह बना ली। 56 सालों के ओजपूर्ण जीवन में प्रभा, प्रताप, कर्मवीर उनके पड़ाव रहे। साथ ही उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में भी विशिष्ट ऊंचाई पाई। वे बड़े कवि भी थे पर उनके पत्रकार पर उनका कवि या राजनीतिज्ञ कभी हावी न हो सका। इतना ही नहीं, जब प्राथमिकताओं को तय करने की बात आई तो मध्यप्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता होने के बावजूद उन्होंने सत्ता का वरण करने के बजाय मां सरस्वती की साधना को प्राथमिकता दी।
आजादी के बाद वे 30 जनवरी 1968 तक जीवित रहे पर सत्ता का लोभ उन्हें कभी सरस्वती की साधना से विरक्त न कर पाया। इतना ही नहीं 1976 में भारतीय संसद द्वारा राजभाषा विधेयक पारित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रपति को अपना पद्मभूषण अलंकरण लौटा दिया जो उन्हें 1963 में दिया गया था। इस प्रकार उनके मन में संघर्ष की ज्वाला अंत तक बुझी नहीं थी। वे निरंतर समझौतों के खिलाफ लोगों की जागृति के वाहक बने रहे। उन्होंने स्वयं लिखा है-
अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र
उन्मुक्त राष्ट्र, यह मेरी बोली
यह सुधार-समझौतों वाली
मुझको भाती नहीं ठिठोली।
वे असंतोष एवं मानवीय पीड़ा बोध को अपनी पत्रकारिता के माध्यम से स्वर देते रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्हें कोई जंजीर कभी बांध न सकी। उनकी लेखनी भद्र एवं मर्यादा की कायल थी। एक बार उन्होंने अपनी इसी भावना को स्वर देते हुए लिखा था कि, हम फक्कड़, सपनों के स्वर्गों को लुटाने निकले हैं। यह निर्भीकता ही उनकी पत्रकारिता की भावभूमि बनती थी। स्वाधीनता आन्दोलन की आंच तेज करने में उनका कर्मवीर अग्रणी रहा। उसके तेजाबीपन से समूचा हिन्दी क्षेत्र प्रभावित था। कर्मवीर की परिधि व्यापक थी। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय विषयों पर समान अधिकार से चलने वाली सम्पादक की लेखनी हिन्दी को सोच की भाषा देने वाली तथा युगचिंतन को भविष्य के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने वाली थी।
-संजय द्विवेदी -विभूति फीचर्स