जब मन में उपजता है अभिमान, तब जन्म लेते हैं पाप

जिस प्रकार पुण्य कार्य अनेक हैं उसी प्रकार पाप कर्मों की सूचि भी बहुत लम्बी है। इनमें मुख्य रूप से धोखा, चोरी, लूट, ठगी, हिंसा, ढोंग, हत्या, शोषण, झूठ, छल, विश्वासघात, कृतघ्रता, मद्यपान आदि अनेक पातक गिनाये जा सकते हैं। इन सभी प्रकार के पापों के दो कारण हैं। प्रथम अभिमान और द्वितीय अवमान। अभिमान का फल क्रोध और अवमान का प्रतिफल लोग को जन्म देता है। अभिमान तथा अवमान आध्यात्मिक पाप हैं, जिनके कारण विभिन्न प्रकार के मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक पापों का जन्म होने लगता है। अभिमान वह पाप है, जिसमें व्यक्ति मदहोश होकर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है। वह सोचता है कि लोग उसकी खुशामद करे, चापलूसी करे और सभी लोग मुझे श्रेष्ठ समझे। सभी मेरी बातें मानें। जब इसमें कमी आने लगती है तो वह इसे अपना अपमान समझ क्रोध से भर जाता है। वह नहीं चाहता है कि कोई भी मेरे बराबर का हो या मुझसे आगे निकले वह जिस किसी को सुखी देखता है, उससे ईर्ष्या करता है, साथ ही अहंकार की पूर्ति हेतु अपनी सम्पन्नता बढाना चाहता है और इसके लिए अनेक पाप कर बैठता है। अभिमानग्रस्त व्यक्ति सीधे मार्ग पर चलने के सापेक्ष बेईमानी तथा अनीति के रास्ते पर चला जाता है, फलस्वरूप वह सम्मान से वंचित हो जाता है।