कांग्रेस नेता राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द किए जाने पर जिस तरह सभी विपक्षी दल उनके समर्थन में उतर आए, क्या यह मान लिया जाए कि निजी हितों के टकराव और आपसी अहंकार को भूलकर विपक्षी दल अब एकजुट हो गए हैं?
तीसरे मोर्चे की कवायद में जुटे कुछ सक्रिय दल राहुल गांधी की सदस्यता रद्द होने के बाद अचानक पूरे विपक्ष की एकजुटता की बात करने लगे हैं। हालांकि पिछले दिनों तीसरे मोर्चे के लिए सक्रियता सामने आ रही थी, खासतौर पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की शीर्ष नेता ममता बनर्जी ने इस घटना के बाद अचानक अपना रुख बदल लिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव कई अन्य विपक्षी नेताओं ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए राहुल गांधी के प्रति एकजुटता प्रकट की और सरकार पर जमकर हमला बोला।
दरअसल, क्षेत्रीय विपक्षी दल भी कांग्रेस की कमियों और उसकी इस परेशान हालत से वाकिफ हैं, लेकिन कानूनी लड़ाई के अलावा जनता के बीच जाने के सिवा विपक्ष के पास अब कोई दूसरा चारा भी नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि राहुल की सदस्यता चले जाने के बाद ममता, केजरीवाल, अखिलेश, केसीआर और अन्य नेता क्या अब अपनी रणनीति में बदलाव करेंगे? जो इस समय राहुल गांधी और कांग्रेस को समर्थन करते नजर आ रहे हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और जाने-माने लेखक विभूति नारायण राय के मुताबिक, “इस वक्त कांग्रेस को सभी विपक्षी और क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर चलने की जरूरत है। यह उचित मौका है और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा ने उनकी विश्वसनीयता और स्वीकार्यता जनता के बीच फिर से स्थापित की है।”
उनके अनुसार, “केंद्र की मोदी सरकार की ओर से की जा रही कार्रवाइयों ने भी उनके प्रति तमाम विपक्षी पार्टियों को नरम और सकारात्मक बना दिया है, ऐसे में यह तो तय है कि कांग्रेस को ‘लीड’ लेने की जरूरत है।”
कभी बीजेपी और कांग्रेस में रह चुके तृणमूल कांग्रेस के नेता शत्रुघ्न सिन्हा ने राहुल गांधी की कही बात का हवाला देते हुए कहा, “बीजेपी ने विपक्ष को बहुत बड़ा हथियार दे दिया है और ये हथियार ऐसा मिला है कि इससे लोकतंत्र की केवल रक्षा ही नहीं होगी, बल्कि आने वाले दिनों में सौ से ज्यादा सीटों का इजाफा राहुल गांधी और विपक्ष को होगा। इसके पीछे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा भी एक कारण है, लेकिन अब सोने पर सुहागा की स्थिति हो गई है।”
ममता बनर्जी अब तक कांग्रेस पर हमलावर थीं, लेकिन अब वह राहुल के समर्थन में उतर आई हैं। उन्होंने कहा, “पीएम मोदी के न्यू इंडिया में बीजेपी के निशाने पर विपक्षी नेता! जबकि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले भाजपा नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल किया जाता है, विपक्षी नेताओं को उनके भाषणों के लिए अयोग्य ठहराया जाता है। आज, हमने अपने संवैधानिक लोकतंत्र के लिए एक नया निम्न स्तर देखा है।”
बिहार में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनता दल ने इस घटना के बाद प्रतिक्रिया में देश में लोकतंत्र को मृत घोषित कर दिया और इसे लोकतंत्र के इतिहास में सबसे बड़ा काला धब्बा बताया।
गौरतलब है कि राहुल पहले ऐसे नेता नहीं हैं, जिनकी सदस्यता चली गई। इसके पहले भी कई ऐसे सांसद और विधायकों की सदस्यता जा चुकी है, जिन्हें कोर्ट ने दो साल या इससे अधिक की सजा सुनाई है। इस तरह के मामलों में समाजवादी पार्टी के नेता आजम खां और उनके बेटे अब्दुल्ला आजम, मुजफ्फरनगर की खतौली से विधायक रहे विक्रम सैनी, लक्षद्वीप के सांसद मोहम्मद फैजल भी इसका उदाहरण हैं, लेकिन केरल हाईकोर्ट ने सजा पर रोक लगा दी और अभी ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
इस बीच कांग्रेस नेताओं का दावा है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने करीब 150 सिविल सोसाइटी संगठनों के लोगों से सीधा संवाद करके मौजूदा सरकार की नीतियों के खिलाफ माहौल बनाने में अपेक्षित सफलता पाई है। लिहाजा, कांग्रेस के लिए यही व़क्त है कि अब वे उन्हें एकजुट करके इसे राजनीतिक अभियान में बदलने के लिए पूरी ताकत झोंक दे।
कांग्रेस के अनुसार, अब समय आ गया है कि विपक्षी एकजुटता के लिए व्यवस्थित ढंग से काम शुरू किया जाए। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने कहा, “इसको लेकर सहमति है कि अब हमें विपक्षी एकजुटता के काम को व्यवस्थित ढंग से शुरू करना चाहिए। अब तक संसद के भीतर समन्वय था और अब बाहर भी समन्वय होगा।”
साल 1976-77, 1987-89 और 2011-14 के अनुभव बताते हैं कि राजनीतिक रूप से संचालित होने वाले जन आंदोलनों ने सरकार बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
वहीं, राहुल गांधी प्रकरण से इसकी तुलना की जाए तो साल 1978 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के गिरफ्तार कर दिल्ली की तिहाड़ जेल में डाल दिया गया था। इसके विरोध में प्रदर्शन होते रहे और 2 मई, 1979 की एक मिडिया रिपोर्ट और फोटो के मुताबिक, आधे बाजू की कमीज पहने संजय गांधी के दोनों हाथों पर लाठियों की चोट के गहरे निशान थे। उन्हें भी अगले दो ह़फ्ते के लिए जेल भेज दिया गया था।
लिहाजा, अब इस लड़ाई को सड़कों पर लाने से पहले कांग्रेस नेताओं को इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि राहुल गांधी क्या वह सब झेलने को तैयार हैं, जो 44 साल पहले उनके चाचा ने झेला था?
एक सवाल यह भी उठता है कि राहुल गांधी ने जरूर तमाम विपक्षी दलों की एकजुटता और समर्थन की प्रतिक्रिया का स्वागत किया है, लेकिन सवाल यह है कि राहुल पूरे विपक्ष को एक सूत्र में पिरोने के लिए स्वयं कितना प्रयास करेंगे। कितने नेताओं से बात करेंगे या कांग्रेस अपने तेवर में क्षेत्रीय दलों के साथ नरमी लाएगी।
राहुल गांधी को गुजरात की अदालत द्वारा वर्ष 2019 के ‘मोदी उपनाम’ संबंधी एक बयान पर मानहानि मामले में दोषी करार दिए जाने और दो वर्ष कैद की सजा सुनाए जाने की वजह से लोकसभा सचिवालय ने उनकी संसद की सदस्यता खत्म करने का फैसला लिया। केरल के वायनाड क्षेत्र को अब फिर से अपना सांसद चुनना होगा।