Saturday, November 23, 2024

समलैंगिक विवाह भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात

भारत की सर्वोच्च न्यायालय में वर्तमान में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के प्रकरण पर विचार चल रहा है। इस विषय पर समलैंगिक विवाह के पक्षधर लोगों द्वारा यह दलील दी जा रही है कि समलैंगिक लोगों को विवाह का अधिकार नहीं देना समानता के अधिकार का उल्लंघन है। विशेष विवाह अधिनियम 1954 के अंतर्गत केवल महिला और पुरुष को एक दूसरे से विवाह के करने की स्वीकार्यता का प्रावधान है।

मामले को न्यायालय में ले जाने वालों की दलील है कि इस प्रावधान का जैडर न्यूट्रल होना चाहिए। केंद्र सरकार का स्पष्ट कहना है कि ऐसा कोई अधिकार उसे विवाह की परिभाषा बदलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। इस प्रकार की शादी को मान्यता दी गई तो समाज पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। इससे कई अन्य कानूनों के प्रावधान भी प्रभावित होंगे।

सरकार के साथ ही समाज में भी बड़ा वर्ग है जो इस तरह के विवाह को मान्यता दिए जाने का विरोध कर रहा है। लगभग सभी का तर्क यही है कि इससे समाज में  परिवार नाम की संस्था के अस्तित्व पर संकट आएगा। समाज का ढांचा प्रभावित होगा। उनका कहना है कि धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर भी समलैंगिक विवाह को स्वीकार्यता मिलना संभव नहीं है।

अदालत में सुनवाई के साथ कई समूहों ने इसका विरोध करना भी शुरू कर दिया है। ऐसे में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की स्थिति में आने वाले वैधानिक संकट और समाज पर इससे पडऩे वाले प्रभावों की पड़ताल हम सभी के लिए बड़ा मुद्दा है।
भारत में प्राचीन परंपरा व्यक्ति के जीवन से मृत्यु तक सोलह संस्कारों की रही है। सोलह संस्कारों में शुभ विवाह को पाणिग्रहण संस्कार कहा जाता है। लगभग सभी समाजों में युवक एवं युवती की जन्म कुंडली गृह नक्षत्रों के मिलान कर ही शुभ विवाह करने का प्रावधान है।

जैन दर्शन के मर्मज्ञ एवं सुप्रसिद्ध वरिष्ठ अभिभाषण विनय कुमार जैन निवासी गुना ने समलैंगिक विवाह की मांग पर अपने मुखर विचार व्यक्त किये हैं। आपका कहना है जैन दर्शन में धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से संसार के भव भ्रमण का नाश करते हुए मोक्ष पद की प्राप्ति करना ही व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। और इसके लिए सर्वोत्तम साधन अविवाहित रहते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना है।लेकिन यदि किन्हीं परिस्थितियों के कारण व्यक्ति को अविवाहित रहना संभव न हो और उसे विवाह करना आवश्यक ही हो तो वह अपने वैवाहिक जीवन में एकनिष्ठ रहते हुए मुक्तिपथ का अनुगामी हो सकता है ।

जैन दर्शन में और भारतीय संस्कृति में वैवाहिक जीवन को गृहस्थाश्रम  कहा गया है। इस अवस्था को गृहस्थ धर्म का पालन करना भी कहा गया है। विवाह का अर्थ काम- वासना में लिप्त हो जाना नहीं है, अपितु संयम की साधना करते हुए वंशवृद्धि के लिए उत्तम संतान को जन्म देना भी है, इस संतान को श्रेष्ठ संस्कार देना भी गृहस्थ धर्म का एक दायित्व है।

जिससे वह संतान आगे चलकर धर्म वृद्धि करते हुए स्वयं का और अन्य जीवों का कल्याण कर सके। इस प्रकार स्थूल रूप में कहें तो वैवाहिक जीवन सदाचार को बढ़ावा देने के लिए वंश, समाज और धर्म की वृद्धि के लिए है तथा इसमें व्यभिचार का कोई स्थान नहीं है। इसके माध्यम से आदर्श सामाजिक जीवन जिया जाता है।

इन दिनों समलैंगिक विवाह को सामाजिक और विधिक मान्यता देने के लिए बहुत आग्रह किया जा रहे हैं। किंतु यह आग्रह प्रथम दृष्टया ही दुराग्रह प्रतीत होते हैं क्योंकि वैवाहिक जीवन जिसे गृहस्थ धर्म का पालन करने की संज्ञा दी गई है केवल और केवल विपरीत लिंगधारी अर्थात स्त्री- पुरुष के मध्य ही संभव हो सकता है। दो समलैंगिक परस्पर एक दूसरे के अच्छे मित्र हो सकते हैं, वे एक दूसरे के जीवन यापन में भौतिक उन्नति प्रदान करने के लिए सहायक हो सकते हैं। और ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते हुए एक दूसरे को धर्म पथ पर अग्रसर रहने में सहायक हो सकते हैं। वे साथ-साथ रहकर भी अच्छे नागरिक बने रह सकते हैं।

परंतु ऐसे साथ-साथ रहने को विवाह नाम के पवित्र गठबंधन का नाम नहीं दिया जा सकता है। *समलैंगिक विवाह को सामाजिक और विधिक मान्यता दिलाने की मांग जीवन में उच्च नैतिक आदर्शों की स्थापना करने के लिए नहीं है अपितु व्यभिचार को सामाजिक मान्यता दिलाने का दुराग्रह मात्र ही है।

गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए अपने वंश, धर्म और संस्कारों की रक्षा के लिए संतान उत्पत्ति का लक्ष्य भी समलैंगिक विवाह के द्वारा समाप्त ही हो जाएगा। अंग्रेजी शासन काल में लॉर्ड मैकाले ने गहन अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला था कि भारतीय संस्कृति में गुरुकुल पद्धति के माध्यम से शिक्षा और संस्कृति के जिन आदर्श संस्कारों का बीजारोपण करते हुए आदर्श नागरिकों का निर्माण किया जाता है, उन गुरुकुल को नष्ट किए बिना अंग्रेजी शासन को भारत वर्ष में बनाए रखना संभव नहीं है क्योंकि गुरूकुल की शिक्षा प्रणाली जीवन में आत्मोन्नति के संस्कार देती है और यह संस्कार गुलामी के बंधन में बांधे रखने में बहुत बाधक हैं अत: अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा पद्धति को आमूल चूल रूप से नष्ट किया और उसके दुष्परिणाम सामने आए।

इसी प्रकार समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग हमारे दर्शन और उच्च नैतिक जीवन के संस्कारों के हरे-भरे और घने वृक्ष की जड़ों पर प्रहार करने के समान है। ऐसी मांग के कुल्हाड़ों की धार को समय रहते ही नष्ट नहीं किया गया तो हमारे गृहस्थ धर्म को और उच्च नैतिक मापदंडों पर आधारित सामाजिक जीवन को शनै: शनै: नष्ट होने से कोई नहीं रोक सकेगा।*  दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस एन ढींगरा का मत है समलैंगिक संबंध भारत में अपराध नहीं है हालांकि समाज इन्हें  विवाहित जोड़े के रूप में न स्वीकारता है और ना ही ऐसे जोड़े को विवाहित जोड़ा कहने के योग्य मानता है।

विवाह पति पत्नी के बीच की जिम्मेदारी है यह मानव जीवन का संस्कार है जो समाज को मजबूत करता है। श्री जयप्रकाश नारायण मिश्रा पी जी कॉलेज लखनऊ में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर विनोद चंद्रा कहते हैं समलैंगिक विवाह को मान्यता जटिल मसला है एक ओर इस समुदाय के साथ समानता का तर्क है तो दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था। निस्संदेह इस दिशा में बहुत संभल कर ही किसी नतीजे पर पहुंचना होगा।

वेनेशियन मेडिकल एसोसिएशन ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि समलैंगिक संबंध रखने वालों में एचआईवी एड्स का खतरा ज्यादा देखा गया है, इनमें नशे की लत, अवसाद, हेपेटाइटिस और यौन संचारित रोगों एसटीडी के होने की आशंका भी ज्यादा देखी गई है कुछ इस प्रकार के कैंसर का खतरा भी ऐसे लोगों में ज्यादा रहता है हालांकि एक वर्ग है जो ऐसी बहुत सी बीमारियों के लिए उन्हें समाज में स्वीकार्यता नहीं मिलने के कारण मानता है।

सन 2008 में अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन ने समलैंगिकता और यौन इच्छा को लेकर कहा था इस बात को लेकर एक राय नहीं है कि यौन रुझान का कारण क्या है हालांकि कई शोध में पाया गया है कि आनुवंशिक एवं हार्मोन संबंधी कारण परवरिश सामाजिक एवं सांस्कृतिक माहौल से व्यक्ति की यौन इच्छा पर प्रभाव पड़ता है इसका कोई एक कारण नहीं है प्रकृति और परवरिश दोनों की ही इसमें भूमिका रहती है।
(लेखक-विजय कुमार जैन)

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