बाबूजी धुन के बड़े पक्के थे। एक बार उन्हें धुन सवार हुई ब्रह्म मुहूर्त में पोखर (तालाब) में स्नान कर वहीं किनारे स्थित मंदिर में भगवान शिव का जलाभिषेक करने की। तब मेरी उम्र 10-12 वर्ष रही होगी। पूस-माघ का महीना, भीषण शीतलहरी मगर इससे उन्हें कहां फर्क पडऩा था. बाबूजी के साथ मैं भी चला जाता।
हमारे पूर्वजों ने गांव को बसाने में बड़ी बुद्धिमानी का परिचय दिया था। समाज के सभी तबके के लोगों के लिए उनकी वृत्ति और पेशा के हिसाब से सुविधाजनक स्थान पर बसावट की सुविधा सुनिश्चित की गई थी। चूँकि कुम्हारों का काम मिट्टी के बर्तन, मूर्तियां आदि बनाना होता है, ऐसे में उन्हें पानी की अधिक आवश्यकता होती थी। उस जमाने में गांवों में नल के बारे में कौन कहे, ट्यूबवेल की सुविधा भी हर घर में नहीं हुआ करती थी। हर टोले-मोहल्ले में बीस-पचास घरों के बीच खुदवाए गए कुएं ही प्यास बुझाने और खाना पकाने के लिए पानी का एकमात्र सहारा हुआ करते थे। तो कुम्हारों की सुविधा को देखते हुए उनके मकान पोखर के किनारे ही बने थे। इन्हीं कुम्हार परिवारों में सर्वाधिक बुजुर्ग थे दर्शन पण्डित।
बाबूजी के साथ ब्रह्म मुहूर्त में जिस समय स्नान के लिए मैं अपने घर से करीब आधा किलोमीटर दूर स्थित पोखर पर पहुंचता, लगभग उसी समय अक्सर दर्शन पण्डित भी नित्य क्रिया से निवृत्त होने के बाद वहां आते कुल्ला-आचमन करने। 70-75 वर्ष की उम्र, दरमियानी कद, दुर्बल काया, पक्का रंग। आते ही बाबूजी पर पिल पड़ते – मास्टर, तुम दमा के मरीज हो, क्या सूझी है तुम्हें इस तरह इस भीषण ठंड में तड़के आकर नहाने की। अरे! खुद तो मरोगे ही, इस बच्चे की भी जान ले लोगे। उनका लिहाज करके बाबूजी चुप रह जाते। कोई प्रत्युत्तर नहीं देते। प्रतिवाद करने का तो सवाल ही नहीं था। कई बार दर्शन पण्डित जी का गुस्सा जब आक्रोश में बदल जाता तो बाबूजी मंद स्वर में भोले बाबा हम दोनों की रक्षा करेंगे कहकर जिम्मेदारी भगवान शिव पर टाल देते। दर्शन पण्डित भी क्या करते? मन मसोस कर रह जाते।
पोखर के दूसरे छोर पर प्राइमरी स्कूल है जहाँ पढऩे के लिए हम बच्चे रोजाना दर्शन पण्डित जी के दरवाजे से होकर ही जाया करते थे। कभी वे बर्तन बनाने के लिए मिट्टी तैयार करते दिखायी देते तो कभी चाक पर भाँति-भाँति के बर्तन गढऩे में जुटे रहते। उनके परिवार के अन्य लोग कई बार बर्तनों को पकाने के लिए आवां में उन कच्चे बर्तनों को जमा रहे होते। उनके दरवाजे से गुजरने के दौरान आवां में पकते हुए बर्तनों से निकलते धुएं की खुशबू आज भी भूल नहीं पाया हूँ। दर्शन पण्डित जी कई बार घड़ा को अंदर-बाहर से चोट देकर उसे रूप-आकार देने में भी तल्लीन नजर आते।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढि़-गढि़ काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
गुरु की महिमा का बखान करने वाले संत कबीर के इस दोहे में छिपे दर्शन को हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में पढऩे से पहले मैंने और मेरे जैसे दर्जनों बच्चों ने प्राइमरी कक्षा की पढ़ाई के दौरान दर्शन पण्डित जी को काम करते हुए देखकर ही आत्मसात कर लिया था।
दुर्गा पूजा में लगने वाले मेले में बेचने के लिए शारदीय नवरात्र शुरू होने से काफी पहले ही दर्शन पण्डित अपने बेटे के साथ साँचे में ढालकर तरह-तरह के पशु-पक्षी, गुडिय़ा, खिलौने आदि बनाने में जुट जाते। यह क्रम दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश और सामा-चकेवा व चुगला की मूर्तियां बनाने तक जारी रहता। इन्हें सुखाने के बाद आवां में पकाया जाता और फिर उनके परिवार की महिलाएं विभिन्न रंगों से रंग कर उन मूर्तियों और खिलौनों में जान ही डाल देती थीं।
समय बीतने के साथ ही बहुत कुछ बदल गया। पशुओं के प्यास बुझाने और जल केलि का इकलौता ठिकाना और मनुष्यों के लिए सामूहिक स्नानागार रहे पोखर की अब मछली पालन के कारण ऐसी दुर्गति हो गयी है कि हर किसी ने उससे दूरी बना रखी है। दर्शन पण्डित तो वर्षों पहले अपनी उम्र पूरी कर ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाने पहुँच गये। हां, दर्शन पण्डित का चाक आज भी उनके दरवाजे पर विरासत के रूप में उनकी उपस्थिति का एहसास कराता है मगर, अफसोस अब उस चाक पर बर्तन नहीं गढ़े जाते क्योंकि दर्शन पण्डित के परिवार की नयी पीढ़ी ने कुम्हारी के काम को कब का अलविदा कह दिया। शादी-विवाह के मौके पर गांव की महिलाएँ चाक की पूजा करने की रस्म जरूर अदा करती हैं।
इस साल जयपुर में सर्दी ने मानों सारे पुराने रिकॉर्ड तोडऩे की कसम खा रखी है। पिछले चार-पांच दिनों से ऐसी धूजणी छूट रही है कि हर कोई परेशान है। इसके बावजूद क्षुधा की आग को बुझाने के लिए लोगों को काम पर निकलना ही पड़ता है। दफ्तर से लौटने के बाद कल शाम एक सर्व सुविधा संपन्न मित्र, जिसके महानगर स्थित मकान के हर बाथरूम में गीजर लगा है, फोन पर बातचीत के दौरान जब सर्दी के मौसम में स्नान करने की दुश्वारियां गिनाने लगा तो अनायास ही मुझे बचपन का वह जमाना याद आ गया।
-मोहन मंगलम