Saturday, May 18, 2024

मौन की प्रतिध्वनि बनाम मौत की प्रतीक्षा

मुज़फ्फर नगर लोकसभा सीट से आप किसे सांसद चुनना चाहते हैं |

सब जानते हैं कि यह संसार नश्वर है। कोई यहां सदा रहने के लिए नहीं आया है। अगर जीवन मिला है तो मृत्यु अवश्यंभावी है। मृत्यु से बचाना संभव नहीं है इसीलिए संतों विचारकों ने मृत्यु को सहजता से स्वीकार करने और उसकी तैयारी की बात कही है। लेकिन क्या ऐसा करना सरल है? जीवन का हर रंग देख चुका वृद्ध शायद मानसिक रूप से स्वयं को मृत्यु के लिए तैयार कर भी ले लेकिन किसी युवा के लिए ऐसा करना कैसे सहज संभव है। वह युवा जिसे जीवन को अभी ठीक से देखने समझने का अवसर ही न मिला हो, उसे यकायक प्रस्थान का आदेश दे दिया जाए तो उसके मन पर क्या बीतेगी? मृत्यु की प्रतीक्षा सहज है क्या? मृत्यु तो एक ही बार में काम तमाम करती है लेकिन मृत्यु की प्रतीक्षा क्षण-क्षण मरण से भी बढ़कर मानसिक वेदना देती है। मृत्यु की प्रतीक्षा की यातना थोड़ा बहुत वही समझ सकता है जिसे किसी असाध्य और मरणासन्न रोगी के अटेंडेंट के रूप में रहना पड़ा हो।
कुछ दिन पूर्व एक युवा को मृत्यु की ओर बढ़ते देख मन बहुत विचलित हुआ। बाहर से स्वस्थ प्रसन्न दिखाई देने वाले युवा को अचानक एक जांच से जानकारी मिलती है कि उसे ब्रेन ट्यूमर है। अनेक प्रकार की जांच के बाद विशेषज्ञ इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि शल्य चिकित्सा संभव नहीं क्योंकि अब तक देरी हो चुकी है। अनेक चिकित्सकों की राय ली गई लेकिन सभी ने लगभग यही बात दोहराते हुए शेष सीमित समय घर पर ही उपचार रखने की सलाह दी।
चारो तरफ से निराश परिवार को अपने एकमात्र सहारे की दशा देखकर दुख शोक होना स्वाभाविक था। बेशक पीडि़त युवा को प्रत्यक्ष कुछ नहीं बताया गया लेकिन परिस्थितियां सब कुछ स्वयं बयां कर देती हैं। हर समय चेहरे पर रहने वाली युवा की मुस्कान लुप्त हो गई और उसके स्थान पर तनाव ने स्थायी ठिकाना बना लिया। उसने बिस्तर पकड़ लिया। दवा भोजन भी वापस आने लगे तो शरीर अशक्त हो गया। बुलंद आवाज फुससाहट में बदल गई । ऐसा प्रतीत होता मानो ठीक दोपहर में घने बादलों ने सूर्य को ढक कर सूर्यास्त कर दिया हो।
यह सत्य है कि जीवन सरल नहीं है। हर कदम पर चुनौतियां रास्ता रोकती है। जय -पराजय स्मृतियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा मन को बेचैन करती है फिर भी मृत्यु का वरण कौन चाहता है? नाना प्रयत्नों, उपायों के बावजूद बढ़ती अशक्तता संकेत है कि वज्रपात रोक नहीं जा सकता। ओह! युवक के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा जैसी भयंकर यातना आरंभ हो गई!
भयंकर कर्क रोग की जानकारी पाकर प्रतिदिन अनेक मित्र हितैषी कुशलक्षेम जानने आते। इस कुशलक्षेम में सहयोग एवं अपनत्व की न्यूनता और औपचारिकता का भाव अधिक दिखाई देता है। कुछ लोग तो अपने लेन-देन की जानकारी परिजनों तक पहुंचाने आये। यहां लेन-देन को केवल एक तरफ समझा जाए क्योंकि ‘लेने की जानकारी देने वाले तो कुछ ने दी परंतु ‘देने की जानकारी एक ने भी नहीं दी जबकि उसकी लेनदेन डायरी इससे बिल्कुल भिन्न चित्र प्रस्तुत कर रही थी। सांत्वना देने की बजाय निराशाजनक चित्रण प्रस्तुत करने वाले उसे मृत्यु के और करीब धकेल जाते हैं। कुछ तथाकथित शुभचिंतक तो इतने उतावले कि उसी के समक्ष परिवार वालों को शीघ्र मुक्ति और मोक्ष के उपाय बताना अपना परम कर्तव्य समझते है। यह सब सुनकर उस रोगी के मन पर क्या गुजरती होगी? पुष्प की पूर्णता प्राप्त कर अपनी सुगंध बिखेरने से पूर्व कली पर काल की काली छाया मंडराती दिखाई देने लगी। कांतिहीन खामोश चेहरा, पत्थरा चुकी आंखें विवश आत्मा की छटपटाहट की व्यथा कहती है। उस मौन की गूंज संवेदनशील ही सुन सकता है जो कह रही है-
मौत जरा इंतजार कर – जिंदगी को समझ रहा हूं मैं
तू बस अपनी तैयारी कर -अपनों को समझ रहा हूं मैं!
-डॉ विनोद बब्बर

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