मनुष्य ऐसी किसी भी वस्तु या व्यक्ति से प्रेम करता है, जिसके साथ उसका व्यक्तिगत लगाव होता है। ऐसा प्रेम दिखावा मात्र भी नहीं होता, उसमें सच्चाई होती है।
प्रेम में मनुष्य के भीतर एक अनुभूति उत्पन्न होती है और इसी अनुभूति के अनुरूप वह व्यवहार भी करता है। कबीर कहते हैं कि पोथी पढ़कर कोई विद्वान नहीं होता पर जो प्रेम के अढाई अक्षर पढ़ लेता है वह महा पंडित हो जाता है।
यह संसार दुखों का सागर है, यहां दुखों का अम्बार लगा है, इसके बावजूद मनुष्य को अपने जीवन के प्रति विशेष लगाव होता है। लाखों कष्टों के रहते भी प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन के प्रति विशेष लगाव है।
विपत्तियों के रहते भी जीवन के प्रति ऐसा मोह है कि वह अमरत्व चाहता है। इसका कारण यह है कि संसार में ऐसा कुछ आकर्षण है कि लोग दुखों को सहने को भी तैयार रहते हैं, संसार का यह आकर्षण प्रेम ही है। प्रेम के अभाव में मनुष्य जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। आनन्द का आधार प्रेम ही है।
प्रत्येक धर्म संस्कृति में प्रेम के गुण को सर्वोच्च माना गया है। प्रेम ईश्वर का सबसे श्रेष्ठ गुण है और इसी गुण के कारण हम उसकी ओर खिंचे चले आते हैं।