Friday, May 17, 2024

(11 अक्टूबर जन्म दिवस पर विशेष)….सच्चे अर्थों में लोकनायक थे जय प्रकाश नारायण !

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तूफानों और आंधियों  से खेलने  में जिसे सदैव आनंद आता रहा हो, शोषण का अंत एवं शोषितों का उत्थान करना जिसका लक्ष्य रहा हो, अगस्त-42 के आंदोलन में वृद्ध नेताओं के जेल  प्रवास पर जिसने यौवन के रक्त के साथ नौजवानों का नेतृत्व कर असह्य यातनाएं सहर्ष झेलीं, वह जय प्रकाश जिन्हें संक्षेप में जे.पी. कहते थे, स्वतंत्र भारत में देश की आशाओं के केन्द्र और नव युवकों के ह्दय सम्राट रहे। बिहार के सारन जिले के सिताबियावाद गाव में 11 अक्टूबर 1902 को जय प्रकाश का जन्म हुआ। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त कर वह पटना विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए। साहित्य एवं गंभीर पुस्तकों में जय प्रकाश की जितनी मति थी, वहीं विज्ञान में भी उतनी ही अभिरूचि थी।

1920-21 में असहयोग आंदोलन उसी समय शुरू हुआ, जब जय प्रकाश विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे थे। सरकारी छात्र-वृत्ति को लात मार एवं अध्ययन का मोह छोड़ कर आप आंदोलन में कूद पड़े जबकि वार्षिक परीक्षा के मात्र बीस दिन बाकी थे, लेकिन चौरीचौरा  काण्ड के बाद गांधी जी ने आंदोलन स्थगित कर दिया। जय प्रकाश में विद्या अध्ययन की प्यास बुझी नहीं थी, इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह अमेरिका जा पहुंचे और वहां आठ वर्ष तक अध्ययन करते रहे। वे विश्वविद्यालय के अवकाश के दिनों में मजदूरी करते और पढाई के दिनों में विद्या अध्ययन में संलग्न रहते। नाना प्रकार की मजदूरियां करते-करते उन्हें मजदूरों की समस्याओं की अति निकट से जानकारी हो गई।

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आठ वर्ष बाद जब जय प्रकाश स्वदेश लौटे, ऐसे में उन्हें चारों ओर से उच्च पदों के प्रस्ताव आ रहे थे। स्वयं महामना मदन मोहन मालवीय उन्हें हिन्दू विश्वविद्यालय में समाज-शास्त्र का विभाग सौंपना चाहते थे परन्तु देश-सेवा, खासतौर पर किसानों और मजदूरों की हालात सुधारना उनका विशेष ध्येय था। ऐसी स्थिति में उन्हें कांग्रेस कार्यालय में नया खुलने वाला श्रमिक-अनुसंधान विभाग सौंप दिया गया। तभी सन् 1930 में कांग्रेस का आंदोलन प्रारंभ हो गया जिसमें जय प्रकाश भी गिरफ्तार कर लिए गए। उनकी गिरफ्तारी पर मुम्बई के फ्री प्रेस  जनरल ने लिखा – कांग्रेस का मस्तिष्क गिरफ्तार हो गया। उन्हें नासिक जेल में रखा गया जहां पर दूसरे बहुत से नेताओं के सम्पर्क में आकर कांग्रेस-समाजवादी पार्टी की योजना तैयार हुई। उक्त समाजवादी दल का प्रथम अधिवेशन 1935 में मेरठ में हुआ। किसानों, मजदूरों में जय प्रकाश की धाक जम गई लेकिन जय प्रकाश इस बात के लिए पूरी तरह सावधान थे कि साम्यवादी इस दल में प्रविष्ट होकर उस पर कब्जा न कर लें।

द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने जबरदस्ती भारत को युद्धरत राष्ट्र घोषित कर दिया। जय प्रकाश ने इस अवसर पर कहा – मेरे देश का इस युद्ध में कोई मतलब नहीं है, क्योंकि हम ब्रिटिश सामा्ज्यवाद और जर्मन नाजीवाद, दोनो को ही समान रीति से बुरा समझते हैं। स्पष्टत: ऐसे युद्ध से भारत का कोई संबंध नही हो सकता। उन्होंने इस अवसर पर निर्भीकता पूर्वक न एक भाई, न एक पाई का घोष किया, यानी युद्ध में तो एक भारतीय सैनिक होना चाहिए, न किसी किस्म का आर्थिक सहयोग ही होना चाहिए। युद्ध-विरोधी प्रचार के अपराध में जय प्रकाश को 1940 में गिरफ्तार कर देवली कैम्प में रखा गया जहां के अत्याचारों के विरोध में आपने विख्यात अनशन किया।

आखिर में ब्रिटिश सरकार को देवली कैम्प तोडऩा पड़ा और जयप्रकाश जी हाजारीबाग जेल भेज दिए गए। इधर सन् 1942 में गांधी जी के करो या मरो की सीधी कार्यवाही के आह्वान के चलते सभी नेता जेल में ठूस दिए गए। जय प्रकाश ने इस पर जेल से भागने की योजना बनायी. साथियों के सहयोग से वे जेल से बाहर निकल भी आए जिससे जनता में नया उत्साह छा गया। सरकार ने जयप्रकाश को पकडऩे के लिए उस समय दस हजार का इनाम घोषित किया पर जय प्रकाश मुम्बई जाकर डा. राम मनोहर लोहिया ओर अरूणा आसफ अली जैसे सहयोगियों के साथ आंदोलन में प्राण फूंकने लगे।
सुभाष बोस द्वारा देश की आजादी के लिए आजाद हिन्द फौज का गठन का विवरण सुनकर जय प्रकाश ने स्वदेश में भी एक आजाद हिन्द फौज संगठित करना शुरू कर दिया। इस सेना का केन्द्र नेपाल की सीमा थी।

उन्होंने मणिपुर जाकर सुभाष बाबू से भी सम्पर्क करने का प्रयत्न किया परन्तु साधनों के अभाव में सफलता नहीं मिली। आजादी की लड़ाई के साथ ही इस दौरान बंगाल में मिदनापुर जिले में अकाल- पीडि़तों की सहायता में संलग्न रहे। अंत में जब वे पंजाब में रेल से यात्रा कर रहे थे तो उन्हें डा. लोहिया के साथ पकड़ लिया गया। उन दोनो को लाहौर किले में बंद कर नाना प्रकार की भीषण यातनाएं दी गई। लाहौर का किला वैसे भी अमानुषिक-यंत्रणाओं के बावजूद न तो जय प्रकाश झुके और न टूटे। अंतत: जनता के आन्दोलन के चलते सरकार को उन दोनो वीरों का तबादला आगरा केन्द्रीय जेल में करने को विवश होना पड़ा। इस बीच बेवल योजना के अनुसार कांग्रेसी नेता मुक्त हो चुके थे परन्तु जय प्रकाश एवं डा. लोहिया को मुक्त करने के लिए अंग्रेज सरकार तैयार नहीं थी।

वायसराय इन्हें सबसे ज्यादा खतरनाक समझ रहे थे। अंतत: गांधी जी के प्रयासों और जनता की उग्र होती जा रही आवाजों के चलते 11 अप्रैल 1946 को उस समय इन्हें जेल से छोड़ा गया, जब कैबिनेट मिशन भारत आया था, और अंतरिम सरकार की रूपरेखा तैयार हो रही थी।

महात्मा गांधी ने सन् 1940 में जय प्रकाश नारायण के विषय में कहा था – जय प्रकाश बाबू एक असाधारण कार्यकर्ता हैं। समाजवाद पर आपका ज्ञान अधिकार सम्पन्न है। यह कहा जा सकता है कि पाश्चात्य समाजवाद के विषय में यदि उन्हें कोई बात मालूम न हो तो वह भारत में अन्य किसी को भी ज्ञात न होगी। पं. नेहरू ने एक बार उनके विषय में कहा था कि वे भविष्य में भारत की आशा हैं।

देश की आजादी के बाद समाजवादी दल ने कांग्रेस से सर्वथा अलग होकर स्वतंत्र रूप से ले लिया लेकिन जय प्रकाश जी से ऐसे समाजवादी थे जो रचनात्मक एवं वैधानिक कामों में विश्वास रखते थे। स्वतंत्र भारत में उन्होंने रेल और डाक विभाग के कर्मचारियों को समझा-बुझाकर उनकी हड़तालें नहीं होने दी। उल्लेखनीय के वह भारतीय रेलवे मैन संघ एवं डाक विभाग के छोटे कर्मचारियों की एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। काफी दिनों तक राजनीति के मैदान पर रहने और करोड़ो लोगों का दिल जीतने के बावजूद जय प्रकाश सक्रिय राजनीति से अलग होने के पीछे उनके कुछ प्रमुख सहयोगियों की कार्य-प्रणाली भी जिम्मेदार थी जिनकी सोच इतनी व्यक्ति केन्द्रित थी, जिसके चलते देश में समाजवादी पार्टी का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।

1970 के पश्चात् अपने नैतिक बल और व्यक्त्वि के सहारे जय प्रकाश नारायण ने चम्बल के बीहड़ के कई दुर्दान्त डकैतों का आत्म-समर्पण कराकर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ा। बावजूद इसके अभी जय प्रकाश को देश के राजनीतिक जीवन मे महत्वपूर्ण भूमिका निभानी थी। बढ़ती मंहगाई, भ्रष्टाचार एवं कुशासन के चलते 1973 से ही गुजरात के छात्रों ने नव निर्माण आन्दोलन शुरू कर दिया। उसका नेतृत्व संभालने के लिए उन्होंने जय प्रकाश को निमंत्रित किया, जय प्रकाश उनके आमंत्रण को स्वीकार करते हुए मैदान में कूद पड़े जिसका परिणाम अंतत: गुजरात के मुख्यमंत्री चिमन भाई के इस्तीफे से हुआ। इतना ही नहीं, मोरारजी भाई के अनशन के चलते गुजरात विधानसभा भी भंग करनी पड़ी।

नए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को पराजय का मुह देखना पड़ा और जय प्रकाश का आर्शीवाद प्राप्त जनता मोर्चा विजयी हुआ। इसी बीच गुजरात के छात्रों की तर्ज पर बिहार में भी छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया और इसका भी नेतृत्व जे.पी. ने ही संभाला। इसी तारतम्य में उन्होंने 8 अप्रैल को पटना में मौन प्रदर्शन का नेतृत्व किया जिसमें पुलिस ने भीषण लाठी-चार्ज किया। जे.पी. को भी लक्ष्य बनाया गया, परन्तु नाना जी देशमुख के आगे आने से वह बच गए।

इसके पश्चात 5 जून 1974 को पटना में विशाल रैली को उन्होंने संबोधित किया जिसमें उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया। उनका कहना था कि न सिर्फ बिहार विधानसभा ही भंग होनी चाहिए, बल्कि सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन होना चाहिए। वस्तुत: जे.पी. के आंदोलन में अगुवाई के चलते पूरे देश में आक्रोश फैल चुका था। सुरसा की तरह बढ़ती मॅहगाई और कैंसर की तरह व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते पूरे देश का आवाम सड़कों पर आ चुका था। जे.पी. देश-व्यापी दौरे कर रहे थे और प्रत्येक जगह उन्हें सुनने के लिए लाखों लोग इक_ा हो जाते थे। इतना ही नहीं, यदि लोगों को यह पता चल जाता है कि जे.पी. इस रास्ते से गुजरने वाले हैं तो छोटी-छोटी जगहों पर भारी संख्या में लोग उन्हें देखने और सुनने को जमा हो जाते थे। वस्तुत: उस दौर पर में जय प्रकाश एक जादुई आकर्षण बन गए थे जिन्होंने पूरे देश को झंकृत और आंदोलित किया था।

12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी का रायबरेली से निर्वाचन कदाचरण के आरोप में अवैध घोषित कर दिया। श्रीमती गांधी से विरोधी दलों से इस्तीफा मांगा, इसके पश्चात दिल्ली के रामलीला मैदान में जे.पी. की ऐतिहासिक रैली हुई जिससे सत्ताधीश थर्रा उठे। इसका नतीजा यह हुआ कि श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 25 जून 1975 को आधी रात को इमरजेन्सी घोषित करा दी।

जय प्रकाश समेत विपक्ष के सभी बड़े नेताओं समेत लाखों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया तो पूरे देश को एक खुला जेलखाना बना दिया गया। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते पे.पी. को 12 नवम्बर को जेल से छोड़ दिया गया, परन्तु तब तक उनकी दोनो किडनी फेल हो चुकी थी और आगे उन्हें डायलिसिस के सहारे जीना पड़ा। 18 जनवरी 1977 को इमरजेन्सी समाप्त हुई और मार्च में लोकसभा के नए चुनाव हुए, जिसमें श्रीमती इन्दिरा गांधी की पराजय हुई और जय पकाश से प्रेरित बनी जनता पार्टी को भारी विजय मिली। इस तरह से मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर- कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। 8 अक्टूबर 1979 को जे.पी. इस दुनिया से चले गए।

जे.पी. की अमूल्य सेवाओं के बदले मृत्योंपरांत उन्हें एन.डी.ए. सरकार द्वारा 1999 में भारत रत्न का पुरस्कार दिया गया। इसके अलावा राष्ट्र भूषण और मैगससे पुरस्कार उन्हें जीवन -काल में ही मिल चुके थे। प्रकाश झा ने उनके जीवन पर लोकनायक और उनका जीवन पर एक फिल्म भी बनाई। पटना एयरपोर्ट का नाम भी उन्हीं के मान पर है। दिल्ली का इरविन हास्पिटल भी उन्हीं के नाम पर है।

जय प्रकाश की पत्नी प्रभावती का उल्लेख करना भी इस अवसर पर समोचीन रहेगा। काका कालेलकर के शब्दों में यदि जय प्रकाश-प्रकाश थे तो प्रभावती बहुत वर्षो तक गांधी जी के आश्रम में रहीं और उनके प्रभाव के चलते जे.पी. ने लम्बे समय तक ब्रम्हचर्य का पालन किया।

वस्तुत: जय प्रकाश देश में दूसरी क्रांति के प्रवर्तक थे पर उन्होंने अपने लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा, यहां तक कि यदि वे चाहते तो देश के प्रधानमंत्री भी बन सकते थे पर उन्होंने अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं किया। स्वतंत्र भारत में उनके जैसी लोकप्रियता और आदर शायद ही  किसी को मिला हो। इस तरह से वह सच्चे अर्थों में लोकनायक थे।
-वीरेन्द्र सिंह परिहार

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