आधुनिक काल के कई स्वयंभू गुरू तथा संन्यासी वस्त्रधारी दूसरों की कमाई पर निर्भर रहकर प्रभु भक्ति का पाखंड करते देखे जा सकते हैं। वे संत नहीं ढोंगी हैं। इस प्रकार ठगी और बेईमानी करके दूसरों की कमाई पर मौज उड़ाकर विचार, आचार मन की निर्मलता तथा प्रभु भक्ति की आशा करना दिन और रात्रि को इकट्ठा करने के समान है।
सच्चे संत तो अपने पवित्र आचरण के द्वारा जिज्ञासुओं को हक हलाल की कमाई करने का उपदेश देते हैं। संत नामदेव कपड़ा रंगने का काम करते थे, कबीर कपड़ा बुनकर रोजी-रोटी कमाते थे। गुरू रविदास जूते गांठकर जीविका चलाते थे।
संत रविदास के शिष्य राजा पीपा ने कभी एक पैसा भी राजकोष से अपने तथा अपने परिवार पर खर्च करने के लिए नहीं लिया, वह श्रम करके अपनी जीविका चलाते थे। गुरू नानक देव ने खेती द्वारा अपना तथा अपने परिवार का पालन पोषण किया और संगत की मुफ्त सेवा की।
भगवान राम तथा माता कौशल्या ने स्वयं उद्यम करके अपना जीवन निर्वाह किया। राजकोष प्रजा की भलाई में व्यय किया। दुख की बात यह है कि आज अपने को धर्म गुरू कहलाने वाले, स्वयं को ब्रह्मा का अवतार बताने वाले कुछ तथाकथित संत गुरू धर्मोपदेशक अपने अनुयायियों के धन को निजी लाभ का साधन मान रहे हैं।