Saturday, May 18, 2024

26 फरवरी स्मृति दिवस पर विशेष- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिपुंज वीर सावरकर !

मुज़फ्फर नगर लोकसभा सीट से आप किसे सांसद चुनना चाहते हैं |

-अशोक “प्रवृद्ध”

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिपुंज वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के ग्राम भगूर में चितपावन वंशीय ब्राह्मण दामोदर सावरकर के घर हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई था। बाल्यकाल का उनका नाम विनायक दामोदर सावरकर था,और घरेलू नाम तात्या था।

Royal Bulletin के साथ जुड़ने के लिए अभी Like, Follow और Subscribe करें |

 

विनायक के माता-पिता दोनों ही भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित, श्रीराम कृष्ण के परम भक्त एवं दृढ़ हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों वाले दम्पति थे। अपने पुत्र विनायक को भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित करने के उद्देश्य से बचपन से ही उनके माता-पिता रामायण, महाभारत आदि की कथा के साथ हिन्दू सूर्य महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी तथा गुरु गोविन्दसिंह आदि की शौर्यगाथाएँ सुनाया करते थे। रामायण और महाभारत की कथाएं बालक विनायक दामोदर सावरकर को बचपन में ही कंठस्थ करा दी गई थी।

बचपन से ही माता राधाबाई भी अपने वैदुष्य को अपने बालक के सुकोमल मन में पूर्णत: उंडेल देने का प्रयास करती थीं। माता राधाबाई अपने पुत्र विनायक को छत्रपति शिवाजी की माता जीजाबाई की भांति ही संस्कारित किया करती थी। बालक विनायक पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा था और विनायक अक्सर ही माँ के समक्ष कहा करते थे –माँ मैं बड़ा होकर शिवाजी बनूंगा।यह सुन माता राधाबाई को अत्यंत प्रसन्नता हुआ करती थी और वे मुख चूम और हाथ फेर अपने बच्चे को प्यार- दुलार कर फूले नहीं समाया करती थीं।

बालक विनायक का मन व हृदय हिन्दू जाति के गौरवमयी भारतीय इतिहास को सुनकर प्रफुल्लित व पुलकित हो उठता था और वे भी छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप की भांति वीर बनकर हिन्दू-पदपादशाही की स्थापना करने, विदेशी शासकों की सत्ता को चकनाचूर करके स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र का नव निर्माण करने की प्रेरणा ग्रहण कर प्रण लिया करते थे।

बड़ा होने के साथ ही विनायक के हृदय में राष्ट्रीयता के बीजांकुर प्रस्फुटित हो पल्लवित व पुष्पित होते चले गये। विनायक के नौ वर्ष की आयु पूरी करते-करते विनायक की माँ राधाबाई स्वर्गवासी हो गईं। इस पर भी पिता दामोदर पंत ने दूसरा विवाह नहीं किया। राधाबाई के घरेलू कामों में से रसोई तो उन्होंने स्वयं संभाल ली और शेष कार्य तीन पुत्रों में वितरित कर दिये। तात्या (विनायक) के जिम्मे कुलदेवी सिंहवाहिनी दुर्गा की उपासना, सेवा का काम आया। तात्याराव बड़ी श्रद्धा भक्ति से कुल देवी माँ की पूजा-आराधना करने लगे।

वे देवी की स्तुति में मराठी पद रचते और देवी की प्रतिमा के सम्मुख श्रद्धानत होकर माँ भारती को विदेशी साम्राज्य के जंजीर से मुक्त करा कर स्वतंत्र हिन्दूराष्ट्र की स्थापना कराने का वरदान मांगा करते थे।संसार छोड़ने के पूर्व ही माता के द्वारा दिए गए शिक्षा व संस्कार वश बालक विनायक अपने देश की स्वाधीनता के सपनेदेखने लगे।वे हिन्दी स्वराज्य के लिए संघर्ष करने की बात सोचने और उसकी योजनाओं के निर्माण में डूबे रहें लगे। विनायक ने पंचम श्रेणी तक की शिक्षा अपने गांव में प्राप्त की और उससे आगे की शिक्षा के लिए नासिक चले गए।

बाद में उन्होंने मुंबई के फर्ग्युसन कोलेज से बी ए की शिक्षा प्राप्त की, और इंग्लैण्ड से कानून की शिक्षा। परन्तु बड़ा होते- होते उनका मन हिन्दवी स्वराज्य के लिए कुछ करने के लिए मचलने लगा और वे सदैव ही यह सोचने लगे कि माँ को दिया गया वचन कब और कैसे पूर्ण होगा? समय को व्यतीत होता देखकर विनायक यथाशीघ्र कुछ करने के संकल्पों से भर जाया करते थे।

उन दिनों लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा सम्पादित केसरी नामक पत्र की तत्कालीन युवाओं और क्रांतिकारियों में बड़ी अच्छी धूम मची थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और उसमे छपने वाले अन्य लेखकों के लेख बड़े ओजस्वी हुआ करते थे और बाल गंगाधर तिलक उस समय युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन चुके थे। विनायक भी लोकमान्य को नायक मान चुके थे, और अपने सहपाठियों के साथ मिलकर राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत साहित्य एवं केसरी आदि राष्ट्रीय विचारों के समाचार-पत्रों को मंगाकरपढ़ा करते थे।यह हिन्द केसरी बनने का उनका प्रथम पग था।देश की स्थिति का अध्ययन किये जाने से उनके हृदय में राष्ट्रभक्ति के अंकुर शनै: शनै: प्रस्फुटित, पुष्पित व पल्लवित होने लगे।

राष्ट्रभक्ति की भावना से प्रेरित,प्रभावित हो उन्होंने अपने साथियों के साथ माता दुर्गा के समक्षदेश की स्वाधीनता के लिए जीवन के अंतिम क्षणों तक सशस्त्र क्रांति के माध्यम से जूझते रहने की प्रतिज्ञा ली।युवा विनायक ने देश भक्ति के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चलने का जो संकल्प लेकर उसका अनुगमन किया,उसी मार्ग का अवलम्बन करते हुए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर दिया।

मनुष्य का अपने चिन्तन व संकल्प के समान ही व्यक्तित्व बन जाता है। मनुष्य के अपने आदर्श उसके भाव जगत को, विचार जगत को और कार्य जगत को बड़ी गंभीरता से प्रभावित करते हैं। विनायक अपना आदर्श शिवाजी को मानते थे। उनके लिए शिवाजी को आदर्श बनाने का अर्थ ही यह था कि स्वयं को संकटों के लिए तैयार कर लेना, माता भारती को पराधीनता की बेडिय़ों से मुक्त करने हेतु देश में क्रांति का साज सजाना।

शिवाजी के आदर्शों ने विनायक के मन मस्तिष्क में भावजगत और विचार जगत का ऐसा निर्माण किया, जिससे उन्होंने अपना भविष्य स्वयं तय कर लिया। और यह भविष्य फल उन्होंने अपनी माता राधाबाई को शिवाजी बनने की वचन देते समय ही बता दिया था। पढाई के साथ ही अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए तात्याराव सावरकर ने योजनाएँ बनानी प्रारम्भ कर दी। सर्वप्रथम उत्साही साथी छात्रों को एकत्रित करके मित्र मेला नामक संस्था बनाकर उसके तत्वावधान में गणेशोत्सव, शिवजी महोत्सव आदि के कार्यक्रम आयोजित करके युवकों में राष्ट्रभक्ति की भावनाएँ भरनी प्रारम्भ कर दीं। सावरकर ने ओजस्वी भाषणों द्वारा युवकों को प्रभावित करके अपने दल का वृहत सदस्य बना लिया, और कई संस्थाओं का निर्माण व गठन कर राष्ट्रभक्ति व स्वाधीनता की अलख जगानी शुरू कर दी।बाद में यही उत्साही युवा तात्याराव सावरकरअनुपम त्याग, अदम्य साहस, महान वीरता एवं उत्कट देशभक्ति के पर्यायवाची बन असाधारण व्यक्तित्व के स्वामी प्रथम प्रात: स्मरणीय वीर सावरकर आधुनिक भारत के निर्माताओं की अग्रणी पंक्ति के ऐसे चमकते नक्षत्र साबित हुए, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्थात जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत जीवन का एक-एक क्षण राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रसेवा, साहित्य-सेवा, समाज सेवा और हिन्दू समाज के पुनरुत्थान के लिए संघर्ष में व्यतीत कर दिया और भारतीय स्वाधीनता संग्राम का जन्मजात योद्धा, हिन्दू हृदय सम्राट स्वातन्त्र्यवीर सावरकर के नाम से इतिहास में अमर हो गये। और हिन्दुस्तान को अखण्ड राष्ट्रके रूप में पुनर्स्थापित – प्रतिष्ठित कराने का महान स्वप्न देखते-देखते ही 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः दस बजे अपने पार्थिव शरीर छोड़कर इस नश्वर संसार से परमधाम को विदा हो गये। अपनी प्रतिज्ञा पर आजीवन प्रसन्नता व्यक्त करने वाले वीर सावरकर ने अपने जीवनकाल में 1857 का स्वातन्त्र्य समर नामक क्रांतिकारियों के मध्य प्रसिद्ध पुस्तक के साथ ही अन्य रचनाओं, लेखों में बहुत कुछ लिखा, और उनके द्वारा लिखे गए प्रत्येक लेखनी में देशभक्ति व कर्तव्यनिष्ठा झलकती है।उनकी देशभक्ति व कर्तव्यनिष्ठा की झलक उनके इस इहलौकिक संसार से जाने से पूर्व बड़े गर्व के साथ लिखे गए अंतिम वसीयत से दृष्टिगोचर होती है, जिसमें उन्होंने कहा है –

मेरा वंश संपूर्ण मानवजाति की सेवा में समर्पित रहा है। मैंने अपने संकल्प के अनुसार प्रत्येक दिवस के कार्य को किये बिना सूर्य को अस्त नही होने दिया। अपने समस्त कर्तव्यों की पूर्ति की चेष्टा मैंने भरसक की है। अपने कृतकार्यों से मेरा जीवन संपन्न बना है। धार्मिक, सामाजिक कोशिश कर्तव्योंका पालन मैंने पूर्ण मनोयोग से किया है। मृत्यु के पश्चात होने वाली अवस्था में सुयोग्य निवास पाने के लिए मैंने अपने कर्मों से ही अग्रिम किराया चुका रखा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं मृत्यु उपरांत अपने कर्मों के बल पर एक अच्छी सी कोठी प्राप्त करूंगा।

ऐसे महान क्रान्तिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेतावीर सावरकर को उनकी स्मृति दिवस पर शत शत नमन।

उनके संसार से जाने से पूर्व बड़े गर्व के साथ लिखे गए अंतिम वसीयत से भी स्पष्ट होता है, जिसमें उन्होंने कहा है –

मेरा वंश संपूर्ण मानवजाति की सेवा में समर्पित रहा है। मैंने अपने संकल्प के अनुसार प्रत्येक दिवस के कार्य को किये बिना सूर्य को अस्त नही होने दिया। अपने समस्त कर्तव्यों की पूर्ति की चेष्टा मैंने भरसक की है। अपने कृतकार्यों से मेरा जीवन संपन्न बना है। धार्मिक, सामाजिक कोशिश कर्तव्यों का पालन मैंने पूर्ण मनोयोग से किया है। मृत्यु के पश्चात होने वाली अवस्था में सुयोग्य निवास पाने के लिए मैंने अपने कर्मों से ही अग्रिम किराया चुका रखा है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि मैं मृत्यु उपरांत अपने कर्मों के बल पर एक अच्छी सी कोठी प्राप्त करूंगा।

Related Articles

STAY CONNECTED

74,188FansLike
5,319FollowersFollow
50,181SubscribersSubscribe

ताज़ा समाचार

सर्वाधिक लोकप्रिय