Friday, January 24, 2025

अध्यात्म: कितना धन चाहिए हमारी आवश्यकताओं के लिए

धन हमारी सभी दैनन्दिन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बहुत आवश्यक है। इसके बिना जीवन में हम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकते। इसे कमाना कठिन कार्य है। अपने सुख-चैन को तिलांजलि देकर दिन-रात अथक प्रयास करना पड़ता है। कोल्हू के बैल की तरह अहर्निश जुते रहना पड़ता है। उस पर भी यह कोई गारंटी नहीं कि मनुष्य को मनोवांछित धन राशि मिल सकेगी।

एक मजदूर सरदी-गरमी की परवाह किए बिना मेहनत करता है, फिर भी उसके घर का चूल्हा कितने दिन जल पाएगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। यह धन, यह लक्ष्मी किसी की सगी नहीं है। बहुत ही चंचल है, आज यहाँ है तो कल कहाँ होगी, पता ही नहीं चल पाता। पलभर में राजा को रंक बना देती है और रंक को राजा। इसकी महिमा अपरम्पार है।

यह धन मनुष्य को कहता है कि मुझे इस हद तक पसन्द करो कि लोग आपको नापसन्द करने लगें। यदि इस धन के पीछे भागते रहे तो सभी संगी-साथी पीछे छूट जाते हैं। इसकी अधिकता होने पर मनुष्य में सबसे पहले अहंकार आता है जो सारे विनाश की जड़ है। फिर उसके साथ-साथ दुर्व्यसन भी उसे घेरने लगते हैं। तब सब लोग उस मनुष्य से किनारा करने लगते हैं।

यही धन सारे फसाद की जड़ है, फिर भी न जाने क्यों सब लोग इसके पीछे पागल हैं। यह सारे रिश्तों को खोखला कर देता है। भाई को भाई के खून का प्यासा बना देता है। माना कि जीवन के लिए इसकी बहुत उपयोगिता है, परन्तु यह सब कुछ नहीं है। यह इंसान के लिए न तो खुशियाँ खरीद सकता है और न स्वास्थ्य। न ही उसकी इस लोक में मृत्यु से रक्षा कर सकता है।

मरने के बाद इसे ऊपर नहीं ले जा सकता, यह इसी लोक में ही रह जाता है। कहते हैं मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता है और खाली हाथ ही विदा लेता है। उसका सब साम्राज्य यहीं धरा रह जाता है। मनुष्य के अपने सच्चे साथी उसके अच्छे या बुरे कर्म होते हैं, जो जन्म-जन्मान्तरों तक साथ निभाते हैं।

यह धन जीते जी मनुष्य को ऊपर ले जा सकता है। यह मनुष्य को अपमानित कराने का कोई अवसर नहीं चूकता। धन के नशे में चूर व्यक्ति को कुकर्मों में फँसाने में जरा भी देर नहीं करता।

इतिहास में बहुत से ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिनके पास बेशुमार धन-दौलत थी पर फिर जब वे मरे, तब उनके लिए रोने वाला कोई नहीं था। जब तक यह धन अपने पास है, तभी तक ही अपना है। जब यह अपने पास नहीं है, तब किसी का सगा नहीं है। इस धन की एक बहुत बड़ी विशेषता है कि जब यह मनुष्य के पास होता है, तब अपने-पराए सभी उसके अपने बन जाते हैं। स्वार्थ के कारण उस धनी को भगवान कहने लगते हैं और उसके सौ खून भी माफ कर देते हैं। वैसे तो धन भगवान नहीं है, पर लोग उसे भगवान से कम नहीं मानते।

धन नमक की तरह होता है जो भोजन का स्वाद बढ़ाता है परन्तु सब्जी में यदि गलती से अधिक डाल दिया जाए तो मुँह का स्वाद बिगाड़ देता है। उसी प्रकार यदि धन आवश्यकता के अनुसार हो तो जीवन में आनन्द देता है लेकिन जरूरत से ज्यादा हो जाए तो जिन्दगी का स्वाद बिगाड़ देता है। बच्चे बिगड़ जाते हैं। वे भी अपने माता-पिता की तरह सोचते हैं कि पैसे के बल पर दुनिया खरीद लेंगे। इसी नशे में गलत रास्ते पर चलने लगते हैं। इस विषय में समाचार पत्र, टीवी और सोशल मीडिया गाहे-बगाहे हमें बताते रहते हैं।

धन को जीवन में यदि साधन मानकर चला जाए तो श्रेयस्कर होता है। जहाँ मानव इसे साध्य मानने की भूल कर बैठता है, वहीं वह पथभ्रष्ट हो जाता है। खूब धन कमाइए और उसका सदुपयोग सत्कार्यों में लगाकर कीजिए। घर-परिवार की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए दान धर्म का निर्वहण भी करना चाहिए। वैसे यह कर पाना कठिन है, फिर भी प्रयास करें कि उसे अपने सिर पर सवार न होने दें।
– चन्द्र प्रभा सूद

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